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________________ ३१८ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन होता है। इसके लिए व्यक्ति को किसी प्रकार के विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। धर्मध्यान के लिए व्यक्ति में सर्वप्रथम ज्ञान आवश्यक है, साथ ही वीतरागता भी होनी चाहिए । इसी प्रकार शुक्लध्यान, जिसमें साधक मन को शान्त एवं निष्पकम्प करता है, जैसे-जैसे साधक धर्म और शुक्लरूपी प्रशस्त ध्यान की ओर अग्रसर होता है उसका आध्यात्मिक विकास होता जाता है और जैसे-जैसे उसका आध्यात्मिक विकास होता है वैसे-वैसे वह प्रशस्त ध्यानों की ओर अग्रसर होता जाता है। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी रूपावचर तथा अरूपावचर दो प्रकार के ध्यान माने गये हैं। पुनः उन्हें चार-चार भागों में विभक्त किया गया है जिसका वर्णन पूर्व के अध्याय में किया गया है। आत्मविकास की क्रमिक अवस्था में अज्ञान अथवा मिथ्यात्व ही बाधक तत्त्व है और इसी के कारण आत्मा कर्मों में जकड़ी रहती है। ज्यों-ज्यों कर्मों का व्युच्छेद होता है त्यों-त्यों आत्मा अपने गुणों से अवगत होती जाती है और उसे सत्य एवं असत्य वस्तु की पहचान होती जाती है। फलत: जीव चार घातिया कर्मों को नष्ट कर सर्वज्ञता को प्राप्त करता है और सर्वज्ञ अथवा अरिहंत अवस्था के बाद आत्मा सिद्धावस्था को प्राप्त होती है। जब जीव के शेष चार अघातिया कर्मों का भी नाश हो जाता है और जीव या आत्मा लोक के अग्रभाग में पहुँच जाती है जहाँ उसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। जैन परम्परा के अनुसार यही मोक्ष है। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी तृष्णा के क्षय से जन्म-मरण की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है, वेदनायें शान्त हो जाती हैं। मनुष्य सदा के लिए शान्त हो जाता है। वर्तमान जीवन में भी योग और ध्यान की प्रासंगिकता उतनी ही है जितनी प्राचीनकाल में थी। बल्कि यह कहा जाए कि वर्तमान में प्राचीन काल से कहीं अधिक है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आज के व्यस्त जीवन में मन विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, वृत्तियों, कामनाओं और विकार-वासनाओं आदि में सक्रिय रूप से संश्लिष्ट रहता है। जिनकी निवृत्ति के लिए मन का निरोध आवश्यक प्रतीत होता है। आज भौतिक सुखों से उत्पन्न मानसिक अशान्ति के निराकरण के लिए भारतीय तो क्या पाश्चात्य जैसे विकसित कहे जानेवाले देश भी भारतीय संतों एवं महात्माओं की योग एवं ध्यान की शिक्षा के लिए लालायित हैं। ऐसे में मन का विरोध करना उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि विरोध करने से मन कुंठित होकर नाना प्रकार की आधि-व्याधियों को जन्म देता है, जिससे एक नई समस्या उत्पन्न होती है। अत: योग से मन का निरोध करना चाहिए। योग से चित्त एकाग्र होता है। चित्त की एकाग्रता का प्रबलतम एवं सर्वोत्तम साधन है- ध्यान। ध्यान के माध्यम से मन की चंचलता, अस्थिरता, अशान्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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