SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपसंहार ३१७ आत्मा क्या है ? आत्मा का स्वरूप क्या है ? आत्मा के बन्धन के कारण क्या है ? तथा बन्ध को रोकने और आबद्ध कर्मों को तोड़ने के साधनों का सम्यक्-बोध कैसे प्राप्त किया जा सकता है? आदि तथ्यों को जानने के पश्चात् तद्नुसार आचरण किया जाये तब जाकर साध्य की सिद्धि हो सकती है। साधना की सिद्धि में ध्यान को साधन स्वीकार किया गया है। लेकिन सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या किसी भी वस्तु या विषय को ध्यान का केन्द्र (आलम्बन) बनाया जा सकता है ? क्योंकि बिना आलम्बन के चित्त की वृत्तियों को केन्द्रित करना सम्भव नहीं हो सकता है। जगत की सभी वस्तुएँ ध्यान के आलम्बन होने की क्षमता रखती हैं। लेकिन उन सभी को ध्यान का आलम्बन नहीं बनाया जा सकता है। एक सुन्दर स्त्री भी ध्यानाकर्षण की क्षमता रखती है, परन्तु साधक यदि स्त्री के सुन्दर शरीर को अपने ध्यान का विषय बनाता है तो वह साध्य की प्राप्ति से पूर्व ही साधना-मार्ग से च्युत हो सकता है, क्योंकि स्त्री को ध्यान का विषय बनाने से साधक के मन में उसके प्रति रागात्मकता पैदा होगी, वासना जगेगी और उसे पाने की आकांक्षा चित्त में विक्षोभ पैदा करेगी। अतः किसी भी वस्तु को ध्यान का आलम्बन बनाने से पूर्व साधक को यह विचार कर लेना चाहिए कि हमारे ध्यान का उद्देश्य क्या है ? क्योंकि ध्यान के प्रयोजन के आधार पर ही ध्येय का निर्धारण होता है। अतः ध्यान के आलम्बन का निर्धारण करते समय साधक को विचार कर लेना चाहिए कि हम जो आलम्बन बना रहे हैं वह हमें राग की ओर ले जाएगा या विराग की ओर । तात्पर्य यह है कि यदि व्यक्ति किसी स्त्री के सौन्दर्य को अपने ध्यान का आलम्बन बनाता है तो वह रागात्मकता अर्थात् वासनाओं के पोषण को अपना उद्देश्य बनाता है और यदि व्यक्ति स्त्री सौन्दर्य की वीभत्सता और विद्रूपता को ध्यान का आलम्बन बनाता है तो अपने ध्यान - सिद्धि का मार्ग प्रशस्त करता है। अतः ध्यान में सर्वप्रथम ध्यान के आलम्बन का निर्धारण आवश्यक है। लेकिन मन में एक प्रश्न सहज उठ खड़ा होता है कि क्या ध्यान में ध्येय के रूप में किसी वस्तु को ग्रहण किया जाता है या नहीं । प्रति उत्तरस्वरूप यही कहा जा सकता है कि ध्यान में ध्येय के रूप में कोई वस्तु नहीं होती बल्कि हमारी चित्त की वृत्ति होती है, क्योंकि ध्यान में आत्मा, आत्मा के द्वारा आत्मा का ही ध्यान करती है। अतः ध्यान की प्रक्रिया में ध्याता भी चित्त होता है और ध्येय भी चित्त होता है। वस्तुतः जिसे हम ध्येय समझते हैं वह हमारा चित्त ही होता है जो ध्येय का आकार ग्रहण करके हमारे सामने होता है। Jain Education International जहाँ तक ध्यान के प्रकारों की बात है तो जैन परम्परा में ध्यान के चार प्रकार हैं- आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल । जिनमें से आर्त और रौद्रध्यान व्यक्ति के स्वभाव में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy