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________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २६७ ५. लोकप्रवृत्तित्याशयता ६. कर्मभवोपत्याशयता ७. संसार निर्वाणाशयता ८.सत्यक्षेत्रकर्माशयता ९. पूर्वान्तापरान्तकर्माशयता तथा १०. अभावक्षय।१२१ साथ ही भाविबोधिसत्व सैंतीस प्रकार के धर्म का परिपालन करता है जो बोधिलाभ का अनुगुण माना जाता है। अनुगुण इस प्रकार हैं- १. स्मृति सहित चार प्रकार के व्यापार १२२- काम, वेदंना, चित्त और धर्म। २. चार प्रकार के उचित प्रयत्न१२३– (क) जो विद्यमान न हो ऐसे अकुशल धर्म को उत्पन्न न होने देना, (ख) जो अकुशल धर्म समूह विद्यमान हैं, उनका परिहास करना, (ग) जो कुशल धर्म उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनका उत्पादन करना तथा (घ) जो कुशल धर्म विद्यमान हैं, उनका पूर्णतः सम्पादन करना। ३. चार प्रकार के ऋद्धिपाद१२४-छन्द, समाधि प्रहाण, संस्कार, समन्वागत। ४. चार नीतिविषयक सामर्थ्य १२५ -श्रद्धा, वीर्य, स्मृतिसमाधि और प्रज्ञा ५. पाँच प्रकार के बल २६-अद्धाबल, वीर्यबल, स्मृतिबल, समाधिबल और प्रज्ञाबल ६. सात प्रकार के सम्बोधि अंगर २७ - स्मृति, धर्मविजय, वीर्य, प्रीति, प्रस्रब्धि, समाधि तथा उपेक्षा। ७. अष्टांगिक मार्ग।१२८ सुदुर्जया सुदुर्जया का अभिप्राय है जिस पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है। अर्चिष्मती नामक भूमि का अतिक्रमण कर साधक इस भूमि में प्रवेश करता है तथा चार आर्य सत्य का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करता है। फलत: उसे विभिन्न प्रकार के सत्यों की उपलब्धि होती है। वे सत्य हैं- १. संवृत्ति सत्य २. परमार्थ सत्य ३. लक्षण सत्य ४. विभाग सत्य ५. निस्तीर्ण सत्य ६. वस्तु सत्य ७. प्रभव सत्य ८. क्षयानुत्पाद सत्य ९. मार्गज्ञानावतार सत्य तथा १० तथागत ज्ञान सत्य प्रभृति।१२९ जिससे उसके अन्दर सभी प्राणियों के लिए करुणा तथा महामैत्री का आलोक प्रादुर्भूत होता है। १३. इस भूमि में अवस्थान करनेवाला भाविबोधिसत्व अपने मन और प्रज्ञा में विशेष गुण का आधान करता है। शास्त्र एवं साहित्य पर अधिकार कर दान, प्रियवादिता, धर्मोपदेश, अतिप्राकृत एवं अलौकिक-शक्ति के सामर्थ्य से जनसाधारण को वह इस संसार में कल्याण का मार्ग निर्दिष्ट करता है। अभिमुखी दश प्रकार की धर्म समता५३१ का परिचिन्तन करने से साधक को इस भूमि की प्राप्ति होती है। साधक जगत के समस्त पदार्थों को शून्य जानने लगता है, उसके लिए संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। तात्पर्य है कि सभी धर्म कारण, लक्षण एवं उत्पत्ति से शून्य हैं। १३२ आत्मा में अभिनिवेश न रहने से सभी जागतिक क्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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