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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन २६६ पारमिता की पवित्रता लाभ करने में समर्थ होते हैं। साथ ही भावीबोधिसत्व के प्रियवादिता एवं शीलपारमिता रूप गुण प्रधान रूप से प्रादुर्भूत होते हैं । ११५ प्रभाकरी साधक आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होते हुए तृतीय भूमि में प्रवेश करता है, जिसे प्रभाकरी के नाम से अभिहित किया जाता है। इस भूमि में अवस्थान किया हुआ साधक इन्द्र की भाँति हो जाता है तथा दशविध चित्ताशय में दश प्रकार के मनस्कार से युक्त होकर विचरण करता है, तब उसकी परिगणना निम्न रूप से की जाती है१. शुद्ध चित्ताशय में मनस्कार, २. स्थिर चित्ताशय में मनस्कार, ३. निर्विच्चित्ताशय में मनस्कार, ४. अविराग चित्ताशय में मनस्कार, ५. दृढ़ चित्ताशय में मनस्कार, ६. उतप्तचित्ताशय में मनस्कार ७. अविनिवर्त चित्ताशय में मनस्कार ८. अतिरिक्त चित्ताशय में मनस्कार।११६ साथ ही वह चिन्तन करता है कि वस्तु की सभी उत्पन्नावस्थाएँ अनित्य, दुःखरूप, उत्पाद - विनाशशील हैं, अतः वह सभी दुःखी प्राणियों को दश प्रकार के चित्ताशय द्वारा सम्पन्न करता है तब उसकी परिगणना इस प्रकार की जाती है - १. जो अनाथ का परित्राण करने में आश्रयरूप है २. जो दरिद्र का परित्राण करने में आश्रयरूप है ३. जो राग, द्वेष एवं मोह रूप अग्नि के द्वारा समप्रदीप्त है तथा ४. जो संसार रूपी कारागार में आबद्ध है। ११७ साधक इस भूमि में निरन्तर उन्हीं उपायों का चिन्तन करता है जिनके द्वारा पूर्वोक्त आर्त प्राणियों को निर्वाण में प्रतिष्ठित किया जा सके। इस सन्दर्भ में दीर्घकालीन चिन्तन के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि भगवान् बुद्ध द्वारा बताया गया मार्ग तथा उपदिष्ट धर्म ही सत्य है, अत: उनका अनुसरण करना चाहिए। अतः वह पूर्व में कहे गये धर्म ११८ के ध्यान ११९ में आविष्ट हो जाता है । फलतः उसे चार प्रकार की निराकार सम्पत्तियों की उपलब्धि होती है जिससे साधक का मन मैत्री, करुणा, मोद और निर्ममत्व से पूर्ण हो जाता है । १२० अर्चिष्मती प्रभाकरी भूमि का अतिक्रमण कर साधक इस भूमि में प्रवेश करता है। इस भूमि में साधक का आत्मा, सत्व, जीव, पोष, पुद्गल, स्कन्ध धातु आयतन के सम्बन्ध में जो अभिनिवेश रहता है वह विनष्ट हो जाता है। इस स्थिति में साधक का आध्यात्मिक संसार अधिकांशतः समृद्ध रहता है। वह ज्ञान का परिपाक करा देनेवाले दश प्रकार के धर्म द्वारा सम्पन्न होता है। दशविध धर्म निम्नलिखित हैं- १. अप्रत्य-दावर्त्याशय २. त्रिरत्नाभेद्यप्रसादनिष्ठागमन ३. संस्कारदोयण्ययविभावन ४. सभावानुपत्याशयता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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