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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
दस भूमियाँ महायान सम्प्रदाय ने बुद्धत्व या निर्वाण की प्राप्ति के लिए दस भूमियों को स्वीकार किया है। एक भमि को पार कर लेने पर बोधिसत्व अगली भूमि में पदार्पण करता है और धीरे-धीरे आध्यात्मिक विकास प्राप्त कर बुद्धत्व पद पर आरूढ़ होता है। यद्यपि बौद्ध ग्रन्थों में कहीं-कहीं दस से अधिक भूमियों की संख्या बतायी गयी है। यथा-लंकावतारसूत्र में धर्ममेघा और तथागत भूमियों को अलग-अलग स्वीकार किया गया है।१००
दसभूमिकसूत्रम् ०१ के अनुसार आध्यात्मिक विकास की दस भूमियाँ निम्नलिखित हैं१. प्रमुदिता
२. विमला ३. प्रभाकरी
४. अर्चिष्मती ५. सुदुर्जया
६. अभिमुखी ७. दूरंगमा
८. अचला ९. साधुमति १०. धर्ममेघा! प्रमुदिता
प्रकृष्ट-मोद यानी प्रकृष्ट आनन्द की उपलब्धि होने के कारण ही इस भूमि को प्रमुदिता कहा जाता है। इस भूमि में साधक अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है। फलत: वह निम्न पाँच प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है- १. जीविका २. निन्दा ३. मृत्यु ४. दुर्गति तथा ५. परिषद्।१०२ दूसरी भाषा में साधक इस भूमि में शील-पारिमिता का अभ्यास करता है। वह अपने शील को विशुद्ध करता है, सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता। फलतः साधक के हृदय में पहले-पहल सम्बोधि के प्राप्त करने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इसी को बोधिचित्त का उत्पाद कहते हैं। इस प्रकार साधक पृथक्जन (साधारण जन) की कोटि से निकल कर तथागत के कुटुम्ब में प्रवेश करता है। बुद्ध और बोधिसत्वों के गौरवपूर्ण कार्यों को स्मरण करके उसका हृदय आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता है। फलत: साधक के हृदय में महाकरुणा का उदय होता है और वह दस महाप्रणिधान व्रत के सम्पादन का संकल्प करता है। जो इस प्रकार है
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