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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
सकृदागामीभूमि
सकृदागामी को परिभाषित करते हुए दीघनिकाय में कहा गया है तीनों संयोजनों के क्षीण होने पर; राग, द्वेष, मोह के निर्बल पड़ने पर साधक सकृदागामी कहलाता है। आनेवाला सकृदागामी साधक संसार में एक ही बार आता है। पं० बलदेव उपाध्याय सकृदागामी का अर्थ बताते हुए कहते हैं कि स्रोतापन्न भिक्षु कामराग (इन्द्रिय लिप्सा) तथा प्रतिध (दूसरे के प्रति अनिष्ट करने की भावना) नामक दो बन्धनों को दुर्बल मात्र बनाकर मुक्तिमार्ग में आगे बढ़ता है, किन्तु इस भूमि में साधक द्वारा क्लेशों का नाश प्रधान कार्य होता है। " स्रोतापन्नभूमि और सकृदागामीभूमि में सामंजस्य स्थापित करते हुए भगवान् बुद्ध इस बात पर बल देते हैं कि साधक को अष्टांगिक मार्ग का आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर वह प्रथम भूमि जो कि आध्यात्मिक विकास की पहली सीढ़ी है उस पर ही आरूढ़ नहीं हो पायेगा।८९ अनागामीभूमि
अनागामी अर्थात् पुनः जन्म न लेनेवाला। दीघनिकाय में कहा गया है कि पाँच अवरभागीय संयोजनों के क्षय से देवता हो देवलोक से न लौटनेवाला (जीव) अनागामी कहलाता है। ९१तात्पर्य है कि अनागामीभूमि में साधक स्रोतापन्नभूमि और सकृदागामीभूमि दोनो बन्धनों को काट देने पर मित्र अनागामी बन जाता है। वह न तो संसार में जन्म लेता है और न किसी दिव्यलोक में।९२ डॉ० सागरमल जैन के अनुसार- इस भूमि में साधक सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा और शीलव्रत-परामर्श आदि तीन संयोजनों तथा सकृदागामी भूमि के कामराग और प्रतिध आदि दो संयोजनों को, यानी इन पाँच संयोजनों को नष्ट कर देता है तब वह अनागामीभूमि को प्राप्त करता है। साधनात्मक दृष्टि से साधक का कार्य इस भूमि में यह होता है कि वह शेष पाँच उद्भागीय संयोजन रूप राग, अरूप राग, मान,
औद्धत्य तथा अविद्या को नष्ट करे। जब साधक इन पाँचों संयोजनों का भी नाश कर देता है तब वह विकास की अग्रिम भूमिका अर्हतावस्था को प्राप्त करता है। इस अनागामी भूमि को प्राप्त साधक यदि विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाता है तो मृत्यु को प्राप्त होने पर ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहीं से सीधे निर्वाण को प्राप्त करता है। उसे पुन: इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती।९३ अर्हतावस्था
व्यक्तिगत निर्वाण पद की प्राप्ति अर्हत् का प्रधान ध्येय है। इस भूमि में साधक उपर्युक्त दसो संयोजनों४ या बन्धनों को तोड़कर अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है। समस्त
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