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भारतीय योग-परम्परा : एक परिचय
उसकी प्राप्ति, द्वितीय पाद में दु:खों के कारणों का विवेचन, तृतीय पाद में धारणा, ध्यानं, समाधि एवं सिद्धियों का तथा चतुर्थ पाद जो कैवल्यपाद के नाम से जाना जाता है, में चित्त के स्वरूप का प्रतिपादन हुआ है।
परम तत्त्वबोध के लिए योग एक उत्तम साधन है। योग को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि ने कहा है- चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है।४ चित्त की वृत्तियाँ पाँच हैं- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । इन पाँचों वृत्तियों के निरुद्ध हो जाने पर ही द्रष्टा वृत्तिसारूप्य से विनिर्मुक्त होकर स्वरूप स्थिति का लाभ करता है। पातंजल योगदर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है- अष्टाङ्ग योग । अष्टाङ्ग योग का निरूपण मन की शुद्धि करके क्रमश: आत्मस्वरूप में स्थित होने के लिए किया गया है। योग के आठ अंग निम्न हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।
इस प्रकार तप, स्वाध्याय, ईश्वर- प्रणिधान आदि क्रियायोग तथा समाधियोग के अभ्यास से योग की सिद्धि होती है। अत: कल्याण चाहनेवाले पुरुषों को अपने इष्ट देव परमात्मा के स्वरूप में ही समाधि लगानी चाहिए। योग के उपर्युक्त आठो अंगों के भलीभाँति अनुष्ठान से मल और आवरणादि दोषों के क्षय होने पर विवेकख्याति पर्यन्त ज्ञान की दीप्ति होती है। ६ फलत: विवेकख्याति से अविद्या का नाश होता है और कैवल्यपद की प्राप्ति होती है। अद्वैतवेदान्त में योग
अद्वैतवेदान्त में योग की प्रधानता है। जैसा कि शंकराचार्य ने कहा है "ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या।" अर्थात्, एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या है, असत्य है। इस मिथ्या जगत में माया के कारण ही जीव नाना योनियों में भटकता रहता है। अत: आत्मदर्शन में मग्न रहकर तथा योगारुढ़ होकर ही इस संसार-सागर को पार किया जा सकता है। माया रूपी अविद्या के कारण ही चित्त स्वयं को नहीं पहचान पाता है। इस माया रूपी अविद्या के आवरण को हटाने के लिए विवेकचूड़ामणि में साधन चतुष्टय का विधान किया गया है। वे चार साधन निम्न हैं-८- नित्यानित्य वस्तु वैराग्य, षट् सम्पत्तियाँ तथा मुमुक्षुत्व।
नित्यानित्य वस्तु विवेक - साधक को सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि क्या नित्य है और क्या अनित्य? जो हमेशा एक ही तरह से रहता है और सदा उपस्थित रहता है, उसे नित्य कहते हैं तथा नित्य के अतिरिक्त जो कुछ भी है वह
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