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________________ ध्यान २२३ शरीर - प्रेक्षा- विपश्यना और प्रेक्षा दोनों में ही यह प्रयोग कराया जाता है। जिसमें शरीर की सूक्ष्म से सूक्ष्म क्रिया को राग-द्वेष रहित होकर देखने का सुझाव दिया जाता है। पूरे शरीर को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर कहीं भी रुके बिना देखते रहने का विधान है। यह प्रयोग दोनों ही पद्धतियों में समान है । २३९ चैतन्यकेन्द्र - प्रेक्षा- विपश्यना में ऐसा कोई प्रयोग नहीं है । इस प्रयोग में एक केन्द्र पर रुक कर ध्यान किया जाता है। ध्यान का प्रारम्भ चैतन्य केन्द्रों से ही प्रारम्भ होता है। किसी एक केन्द्र पर ध्यान करना धारणा है। जब आधा-एक घंटा तक उसी केन्द्र पर चित्त केन्द्रित बना रहे तो वह ध्यान हो जाता है। ध्यान का प्रारम्भिक अंग ही धारणा है। एक बिन्दु पर धारणा होते-होते जब चित्त उस पर एकाग्र हो जाता है तो वह ध्यान हो जाता है। इसका एक सूत्र भी है - धारणा को बारह से गुणा करने पर वह ध्यान हो जायेगा और ध्यान को बारह से गुणा करने पर वह समाधि हो जाती है । २४ स्वाध्याय और जप- विपश्यना में मंत्र का जप और स्वाध्याय करना निषिद्ध है । प्रेक्षा में इन दोनों को समान महत्त्व दिया गया है, क्योंकि सभी व्यक्तियों की रुचि एवं क्षमता समान नहीं होती है । इसलिए ध्यान करने से पूर्व उन्हें प्रारम्भ में जप का प्रयोग करवाया जाता है, जिससे वे ध्यान में प्रविष्ट हो सकें। आसन, प्राणायाम, जप आदि से ही साधना का प्रारम्भ करना चाहिए। अनुप्रेक्षा - विपश्यना में अनुप्रेक्षा जैसा कोई प्रयोग नहीं है। अनुप्रेक्षा के सभी प्रयोग चिन्तन पर आधारित हैं। अनुप्रेक्षा का प्रयोग आदतों में परिवर्तन लाने की एक प्रक्रिया है,जिसे पश्चिमी वैज्ञानिक सजेशन और ऑटोसजेशन कहते हैं। अनुप्रेक्षा का प्रयोग प्रेक्षा का महत्त्वपूर्ण प्रयोग है । २४१ प्रेक्षाध्यान पद्धति में इन सभी प्रयोगों के अतिरिक्त लेश्याध्यान, अनिमेष प्रेक्षा, एकाग्रता और संकल्पशक्ति के भी विशेष प्रयोग कराये जाते हैं, जो किसी अन्य पद्धति में प्रचलित नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कुछ प्रयोगों में दोनों में समानता नजर आती है। लेकिन इसके अतिरिक्त अन्य प्रयोगों का विपश्यना में अभाव-सा नजर आता है। जबकि प्रेक्षा में इन प्रयोगों के अनेक प्रकारों का अभ्यास कराया जाता है । प्रेक्षा के सभी प्रयोग स्वतंत्र हैं और उनका विकास भी स्वतंत्र रूप से हुआ है। इन दोनों ही पद्धितयों को हम अपूर्ण नहीं कह सकते हैं। अपने-आप में दोनों ही पूर्ण पद्धतियाँ हैं, अन्तर है तो केवल प्रयोगों का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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