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________________ भारतीय योग-परम्परा : एक परिचय साक्षात्कार को ही मुख्य लक्ष्य कहा है। तात्पर्य है कि आचार, दान, अहिंसा आदि धर्मों का समादर करते हुए योग के आश्रयण से परमात्मतत्त्व का दर्शन करना चाहिए, यही परम धर्म है।५३ साथ ही महर्षि याज्ञवल्क्य ने योग-साधना के शारीरिक अर्थात् व्यावहारिक प्रकार का भी उल्लेख किया है। उनके अनुसार किसी एकान्त एवं पवित्र स्थान में कुश, मृगचर्म और उसके ऊपर वस्त्र बिछाकर बद्ध पद्मासन लगाकर बैठना चाहिए। ठुड्डी को कण्ठकूप में स्थिरकर, जिह्वा को उलटकर तालु में स्थित कर ओठों को इस प्रकार बन्द करना चाहिए कि दाँतों का परस्पर एक-दूसरे से स्पर्श न हो सके। इसी प्रकार निश्चल बैठकर पैंतालीस बार चुटकी लगाने तक साधक को पूरक, कुम्भक एवं रेचक प्राणायामों का अभ्यास करना चाहिए। सम्पूर्ण इन्द्रियों को उनके विषयों से सर्वथा मुक्त कर अपने चित्त को शुद्ध आत्मा में स्थित कर हृदय में दीपशिखा के तुल्य स्थित भगवान् का निश्चल रूप से ध्यान करना चाहिए।५४ मनुस्मृति के छठे अध्याय में वानप्रस्थ एवं संन्यास धर्मप्रकरण में योग की मुख्य रूप से चर्चा की गयी है। कहा गया है कि सूक्ष्म दृष्टि प्राप्तकर योग द्वारा आत्मा को ही देखने का प्रयत्न करना चाहिए,५५ साथ ही साधक को प्राणायामों के द्वारा शारीरिक दोषों को नष्टकर, धारणा के द्वारा पूर्व-जन्मार्जित तथा वर्तमान तक के सारे पापों को दूर कर, प्रत्याहार के द्वारा संयोग या संसर्ग प्राप्त होने पर भी उनसे दूर रहकर नवीन दोष या किल्विष उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए। इस प्रकार अधिक देर तक धारणा ध्यान सम्पन्न हो जाने पर योगी को (अन्त:करण के सर्वथा शुद्ध हो जाने पर जो जीव के शेष बचे दुर्गुण होते हैं, वे सब नष्ट होकर) ऐश्वर्य अर्थात् ईश्वर के सभी गुण प्राप्त हो जाते हैं।५६ इस प्रकार स्मृतियों में भी परिवार, वर्ण, आश्रम, व्यापार, व्यवहार, राज्य संचालन आदि के साथ-साथ योग का भी वैज्ञानिक स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। पुराणों में योग विभिन्न पुराणों- शिव, वायु, ब्रह्माण्ड, स्कन्द आदि में यौगिक क्रियाओं का उल्लेख मिलता है, जिन्हें कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। इनमें भागवत् पुराण का स्थान सर्वोच्च है। भागवतपुराण के तीन भागों (स्कन्धों) में यौगिक क्रियाओं की चर्चा देखने को मिलती है। इसके द्वितीय भाग के प्रथम एवं द्वितीय अध्याय में, तृतीय भाग के पच्चीसवें तथा अठ्ठाईसवें अध्याय में तथा ग्यारहवें भाग के तेरहवें एवं चौदहवें अध्याय में ध्यान-योग की विस्तृत विवेचना हुई है। विष्णुपुराण में यम-नियम का निरूपण करते हुए कहा गया है कि योगी को अपने मन को समर्थ बनाते हुए निष्काम भाव से ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का सेवन करना चाहिए तथा मन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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