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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
ध्रौव्य आदि पर्यायों का चिन्तन करना पृथक्त्व-वितर्क - सविचार ध्यान कहलाता है। ११० तात्पर्य है कि जब एक द्रव्य के अनेक पर्यायों का अनेक दृष्टियों, नयों से चिन्तन किया जाता है और पूर्व श्रुत का आलबन लिया जाता है तथा शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में एवं मन, वचन और काय में से एक-दूसरे में संक्रमण किया जाता है तब शुक्लध्यान की यह स्थिति पृथक्त्व-वितर्क - सविचार कहलाती है । १११ हरिवंशपुराण के अनुसार जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह अर्थ कहलाता है और उसका प्रतिपादक शब्द व्यंजन। मन, वचन आदि को योग कहते हैं । इस प्रकार जिसमें वितर्क (द्वादशाङ्ग) के अर्थ आदि में क्रम से अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं, पृथक्त्व-वितर्क - सविचार शुक्लध्यान है । ११२ इस ध्यान से साधक अपने चित्त पर विजय प्राप्त कर लेता है और अपने कषायों को शान्त कर लेता है । फलतः साधक को संवर, निर्जरा और अमरसुख की प्राप्ति होती है।
एकत्व-वितर्क- अविचार
यह ध्यान शुक्लध्यान का दूसरा चरण है जिसमें साधक उत्पाद, स्थिति, भंग आदि पर्यायों में से किसी एक पर्याय में अपने मन को निर्वातगृह में रखे हुए प्रदीप की भाँति निष्प्रकम्प बनाकर चिन्तन करता है। चिन्तन की यह अवस्था ही शुक्लध्यान की एकत्व - वितर्क - अविचार अवस्था है । ११३ इसमें वितर्क का संक्रमण नहीं होता, बल्कि एक रूप में स्थित होकर चिन्तन किया जाता है। जैसा कि पहले प्रकार में हमने देखा है कि योगी का मन अर्थ - व्यंजन- योग में चिन्तन करते हुए एक ही आलम्बन में उलट-फेर करता रहता है वहीं दूसरी ओर इस अवस्था में आलम्बन का उलट-फेर बन्द हो जाता है और एक ही द्रव्य की विभिन्न पर्यायों के विपरीत एक ही पर्याय ध्येय का रूप ले लेता है। अर्थात् साधक पृथक्त्वरहित, विचाररहित और वितर्कसहित निर्मल एकत्व - ध्यान को प्राप्त कर लेता है । ११४ फलतः साधक सम्पूर्ण जगत को यथार्थ रूप से देखने और समझने लगता है, ११५ क्योंकि एकत्व - वितर्क- अविचार शुक्लध्यान से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है११६ और केवलज्ञान में इतनी शक्ति होती है कि उसकी प्राप्ति के पश्चात् साधक को भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों काल का युगपत् ज्ञान होने लगता है। इस ध्यान की सिद्धि होने के बाद सदा के लिए घातिया कर्म अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय नष्ट हो जाते हैं और कैवल्य की प्राप्त होती है। ऐसे केवललब्धि प्राप्त तीर्थंकर से सहज रूप से स्व- पर कल्याण होता है। जिन जीवों को तीर्थंकर पद की प्राप्ति नहीं होती वे जीव भी अपने ध्यान से केवलज्ञान प्राप्त करके शेष आयु तक धर्म का उपदेश देते हुए अन्त में मोक्ष को प्राप्त करते हैं । ११
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