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________________ १७४ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन ३. जैन परम्परा में अणुव्रतों का पालन जहाँ छ: भंगों में किया जाता है वहीं बौद्ध परम्परा में नौ भंगों से पालन करने का विधान है, क्योंकि सुत्तनिपात में हिंसा विरमण, मृषा विरमण और अदत्तादान विरमण में कृत, कारित और अनुमोदित की कोटियों का विधान किया गया है, जो मनसा, वाचा और कर्मणा की दृष्टि से नौ हो जाते हैं। ४. जैन परम्परा में पाँच अणुव्रतों के साथ तीन गुणव्रतों की प्रतिज्ञा जीवनपर्यन्त के लिए होती है। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी पंचशील को जीवनपर्यन्त के लिए ग्रहण किया जाता है। बौद्ध परम्परा के शेष तीन शील जिन्हें उपोसथ शील कहा जाता है, शिक्षाव्रतों के समान एक विशेष अवधि के लिए ग्रहण किया जाता है। ५. जैन परम्परा के पंचमहाव्रत एवं रात्रिभोजन-निषेध तथा बौद्ध परम्परा के दस भिक्षुशील में बहुत कुछ समानताएँ देखने को मिलती हैं। फिर भी, कुछ असमानताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं। जैसा कि वर्णित है जैन परम्परा में श्रमण कृत, कारित और अनुमोदित हिंसा के साथ-साथ औद्देशिक हिंसा से भी बचते हैं। औद्देशिक हिंसा से अभिप्राय है यदि कोई श्रमण के निमित्त से हिंसा करता है और श्रमण को यह ज्ञात हो जाता है कि उसके निमित्त से हिंसा की गयी है तो श्रमण ऐसे हिंसक उपायों से प्राप्त आहार आदि को ग्रहण नहीं करता है। जबकि बुद्ध प्राणीवध के द्वारा निर्मित मांस आदि को तो निषिद्ध मानते थे, लेकिन सामान्य भोजन का वे औद्देशिकता से विचार नहीं करते थे। इसका मूल कारण उनका अग्नि, जल आदि को जीव न मानना प्रतीत होता है। ६. जैन परम्परा में अप्रिय सत्य वचन को हितबुद्धि से बोलना वर्जित माना गया हैं, जबकि बौद्ध परम्परा में अप्रिय सत्य वचन को हित बुद्धि से बोलना वर्जित नहीं माना गया है। ७. जैन परम्परा में शीलों का पालन बड़ी ही कठोरता से किया जाता है, वहीं बौद्ध परम्परा में उतनी कठोरता का विधान नहीं है। शीथिलता सम्बन्धी दण्ड-व्यवस्था की चर्चा अगले अध्याय में की गयी है। ८. जैन परम्परा में गुप्तियों और समितियों का विधान है। बौद्ध परम्परा में कहीं स्पष्ट रूप से वर्णन तो नहीं मिलता, किन्तु तीन गुप्तियों और पाँच समितियों से सम्बन्धित कुछ कथन मिलते हैं, जिन्हें गुप्तियों और समितियों के रूप में व्यवहृत कर सकते हैं। ९. जैन परम्परा की भाँति बौद्ध परम्परा में श्रावकों के लिए परिग्रह-परिमाण एवं दिशा-परिमाण का कहीं स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं मिलता है। १०. जैन परम्परा में २२ परीषह मान्य हैं और उन्हें आध्यात्मिक विकास के साधन के रूप में स्वीकार किये गये हैं। जबकि बौद्ध परम्परा में परीषहों की संख्या स्पष्ट नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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