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________________ १५८ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन ब्रह्मचर्य-प्रतिमा - इसमें श्रावक दिन की भाँति रात्रि में भी ब्रह्मचर्य का पालन करता है। सचित्त आहारवर्जन-प्रतिमा - इसमें श्रावक सभी प्रकार के सचित्त आहार का त्याग कर देता है, लेकिन आरम्भी हिंसा यानी कृषि, व्यापार आदि में होनेवाली अल्प हिंसा का त्याग नहीं करता।९५ ___आरम्भत्याग-प्रतिमा - इस प्रतिमा के श्रावक साधक मन, वचन एवं काय से कृषि, सेवा, व्यापार आदि को आरम्भ करने का त्याग कर देता है, किन्तु दूसरों से आरम्भ करवाने का त्याग नहीं करता।९६ इसे हम दूसरी भाषा में इस प्रकार कह सकते हैं कि गृहस्थ उपासक यद्यपि स्वयं व्यवसाय आदि कार्यों में भाग नहीं लेता और न स्वयं कोई आरम्भ ही करता है, फिर भी वह अपने पुत्रादि को यथावसर व्यावसायिक एवं पारिवारिक कार्यों में उचित मार्गदर्शन देता रहता है। परिग्रहत्याग-प्रतिमा - इस प्रतिमा में श्रावक अपनी सम्पत्ति पर से भी अपना अधिकार हटा लेता है तथा निवृत्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़कर परिग्रहविरत हो जाता है। वसनन्दि श्रावकाचार में कहा गया है कि श्रावक शरीर ढंकने के लिए एक-दो वस्त्र रखकर शेष सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग कर देता है तथा मूरिहित होकर रहता है।९७ लेकिन इसमें अनुमति देने से विरत नहीं होता। अनुमतिविरत-प्रतिमा - इस प्रतिमा में गृहस्थ साधक ऐसे आदेशों और उपदेशों से दूर रहता है जिसके कारण किसी प्रकार की स्थावर या त्रस हिंसा की सम्भावना रहती है। वह इतना मोहमुक्त हो जाता है कि किसी प्रकार के लौकिक कार्यों में अनुमति प्रदान नहीं करता।९८ उद्दिष्टत्याग-प्रतिमा - इस प्रतिमा में साधक गृहस्थ होते हुए भी साधु की भाँति आचरण करता है। वह मुण्डन करा लेता है तथा स्वयं के लिए बने आहार का भी परित्याग कर देता है, सम्बन्धियों व जाति के लोगों के यहाँ से भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा ग्रहण करते समय वह इस बात का ध्यान रखता है कि दाता के यहाँ पहुँचने से पूर्व जो वस्तु बन चुकी है, वही ग्रहण करना है, अन्य नहीं। इस प्रकार प्रतिमाएँ तपोसाधना की क्रमश: बढ़ती हुई अवस्थायें हैं, अत: उत्तरउत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वत: ही समाविष्ट होते जाते हैं। फलतः साधक निवृत्ति की दिशा में क्रमिक प्रगति करते हुए अन्त में पूर्ण निवृत्ति के आदर्श को प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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