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________________ प्रथम अध्याय भारतीय योग-परम्परा : एक अवलोकन योग-विद्या भारतवर्ष की अमूल्य निधि है, जो सुदूर अतीत काल से अविच्छिन रूप में गुरु-परम्परापूर्वक चली आ रही है। यही एक ऐसी विद्या है जिसमें वाद-विवाद को कहीं स्थान नहीं मिला है। यही वह एक कला है जिसकी साधना से अनेक लोग अजर-अमर होकर देह रहते ही सिद्ध-पदवी को पा गये हैं। युग-युगों से चला आ रहा यह योग वस्तुत: भारतीय ऋषि-मुनियों तथा यति-योगियों के अध्यवसाय एवं साधनालब्ध अन्तर्जगत का महत्त्वपूर्ण अन्तर्विज्ञान है। इसी योग-समाधि के द्वारा वैदिक काल में कितने ही ब्रह्मोपासक मन्त्र-द्रष्टा ऋषि बन गये, जिनका साक्ष्य वेद की ऋचाएँ हैं। ऋग्वेद जो भारतवर्ष का ही नहीं, अपितु विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है, में सर्वप्रथम योग का संकेत मिलता है, विद्वानों की ऐसी मान्यता है। परन्तु योग का प्रारम्भं वेद से ही हुआ इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि योग सिन्धकालीन सभ्यता की देन है। इस सम्बन्ध में सर जॉन मार्शल ने लिखा है कि मोहनजोदड़ो में जिस नरदेवता की मूर्ति मिली है, वह त्रिमुखी है। वह देवता एक कम उँचे पीठासन पर योगमुद्रा में बैठा है। उसके दोनों पैर इस प्रकार मुड़े हुए हैं कि एड़ी से एड़ी मिल रही है, अंगूठे नीचे की ओर मुड़े हुए हैं एवं हाथ घुटने के ऊपर आगे की ओर फैले हुए हैं। इतना ही नहीं मोहनजोदड़ो में प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित चित्र में त्रिरत्न, मुकुट विन्यास, नग्नता, कायोत्सर्गमुद्रा, नासाग्रदृष्टि, योगचर्या, बैल आदि के चिह्न हैं, जिससे यह प्रमाणित होता है कि मर्ति योगी के अतिरिक्त और किसी की नहीं हो सकती है। अत: यह बताना कि योग-साधना-काल मोहनजोदड़ो की खुदाई के बाद प्रारम्भ होता है उचित नहीं जान पड़ता है। मोहनजोदड़ो की सभ्यता का काल अनुमानत: ई० पू०3250-2750 माना जाता है, जो योग-साधना का काल ही है। अत: सिन्धु सभ्यता, वैदिक सभ्यता की समकालिक योग-मूलक सभ्यता है। यह सभ्यता मिश्रित संस्कृति से युक्त थी, जो परम्परागत रूप से आज भी भारतीय संस्कृति की एक प्रबल विशेषता है। हाँ! स्थान एवं संस्कृति में भिन्नता अवश्य रही होगी जिसके आधार पर ही विद्वानों ने उसे आर्य और अनार्य के रूप में विभाजित किया है, जिसकी पुष्टि महर्षि अरविन्द के कथनों से होती है। महर्षि अरविन्द ने कहा है आर्यों-अनार्यों के बीच का भेद जिस पर इतना सब कुछ निर्भर है, अनेक प्रमाणों से यह ज्ञात होता है कि कोई जातीय भेद नहीं, अपितु सांस्कृतिक भेद था। स्वामी शंकरानन्द ने भी कहा है कि मोहनजोदड़ो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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