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________________ जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार १३५ हमेशा ही स्थायी रूप से पौधे को उत्पन्न कर सकती है, तो इस तर्क को क्षणिकवादी मानने को तैयार नहीं होते। उनके अनुसार यदि बीज में पौधा पैदा करने की क्षमता स्थायी रूप से रहती है और किसी भी क्षण वह पौधा पैदा कर सकता है तब तो उसे मिट्टी में डालने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। घर में बीज से पौधा का न निकलना तथा मिट्टी में डालने पर बीज से पौधा का निकल जाना यह प्रमाणित करता है कि बीज प्रत्येक क्षण बदलता रहता है। अत: स्पष्ट होता है कि सभी वस्तुएँ कारणोत्पन्न हैं तथा उत्पन्न होने से विनाशी हैं। उत्पत्ति और विनाश से सभी वस्तुओं की अनित्यता सिद्ध होती है। जन्म और मरण संसार का स्वभाव है। यहाँ कोई वस्तु नित्य नहीं है, सभी अनित्य हैं, क्षणिक हैं। इस प्रकार क्षण और क्षणिक वस्तु में कोई भेद नहीं, वस्तु का स्वरूप ही क्षणिक है। अत: वह विनाशी है।६४ कर्म सिद्धान्त सामान्यतया 'कर्म' शब्द का अर्थ क्रिया से लिया जाता है। प्रत्येक शारीरिक, मानसिक एवं वाचिक हलन-चलन को क्रिया कहते हैं। बौद्ध परम्परा में भी प्रत्येक मानसिक, वाचिक और शारीरिक क्रिया को कर्म नाम से विभूषित किया गया है। जो शुभ तथा अशुभ या कुशल और अकुशल दोनों हो सकते हैं। यद्यपि बौद्ध परम्परा में शारीरिक, मानसिक और वाचिक क्रियाओं के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग ज्यादा हुआ है, परन्तु वहाँ चेतना को प्रधानता देते हुए कहा गया है-चेतना ही कर्म है। भगवान् बुद्ध ने कहाँ है-भिक्षुओं! चेतना ही कर्म है, ऐसा मैं कहता हूँ, चेतना के द्वारा ही कर्म को करता है, काया से, वाणी से तथा मन से।६५ चेतना को कर्म कहने से बौद्धानुयायियों का अभिप्राय यह नहीं है कि दूसरे सभी कर्म बेकार हैं, बल्कि वहाँ भी कर्म के सभी पक्षों पर समान रूप से विचार किया गया है। डॉ० सागरमल जैन के शब्दों में-आश्रय, स्वभाव और समुत्थान की दृष्टि से तीनों प्रकार के कर्मों का अपना-अपना विशिष्ट स्थान है। आश्रय की दृष्टि से काय कर्म ही प्रधान है, क्योंकि मन-कर्म एवं वाक्-कर्म भी काया पर आश्रित हैं। स्वभाव की दृष्टि से वाक्-कर्म ही प्रधान है, क्योंकि काय और मन स्वभावतः कर्म नहीं हैं, कर्म उनका स्व-स्वभाव है। यदि समुत्थान (आरम्भ) की दृष्टि से विचार करें तो मन-कर्म ही प्रधान है, क्योंकि सभी कर्मों का आरम्भ मन से है। बौद्ध दर्शन में समुत्थान कारण को प्रमुखता देकर ही यह कहा गया है कि चेतना ही कर्म है।६६ भगवान् बुद्ध ने कर्म के दो भेद बतलाये हैं- चेतना कर्म और चेतयित्वा कर्म।६७ इसमें चेतना मानसिक कर्म है और चेतना से उत्पन्न होने के कारण शेष दोनों वाचिक और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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