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________________ जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार १११ मतिज्ञान - जो ज्ञान इन्द्रिय तथा मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह मतिज्ञान कहलाता है। यथा रूप, रंग, स्वाद, गंध, आदि का बोध होना। श्रुतज्ञान- आप्तपुरुष के वचन सुनने अथवा शास्त्रों में पढ़ने से जो ज्ञान प्राप्त होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं। जैसे महावीर के वचन आगमों में मिलते हैं। अवधिज्ञान- आत्मा से रूपी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान अवधिज्ञान है। मनःपर्याय ज्ञान- मन के विविध पर्यायों को जानना मन:पर्याय ज्ञान कहलाता है। मिथ्याज्ञान के भी तीन प्रकार हैं मत्यज्ञान-मति सम्बन्धी गलत ज्ञान मत्यज्ञान कहलाता है। अश्रुतज्ञान- श्रुत सम्बन्धी गलत ज्ञान अश्रुतज्ञान कहलाता है। विभंग ज्ञान- अवधि सम्बन्धी गलत ज्ञान को विभंग ज्ञान कहते हैं। दर्शनोपयोग दर्शनोपयोग के भी दो भेद होते हैं-स्वभावदर्शन तथा विभावदर्शन। स्वभावदर्शन का सम्बन्ध आत्मा से होता है जो सहज एवं स्वाभाविक होता है, साथ ही प्रत्यक्ष एवं पूर्ण भी होता है। इसे केवलदर्शन भी कहा जाता है। विभावदर्शन के तीन भेद होते हैंचक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन तथा अवधिदर्शन। चक्षुदर्शन - चक्षुरिन्द्रिय के माध्यम से जो निर्विकल्प एवं निराकार बोध होता है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। यथा-रात में बहुत दूर कुछ दिखाई देना । जिसमें ऐसा कुछ भी बोध नहीं होता जिससे यह स्पष्ट हो कि क्या है? अचक्षुदर्शन - चक्षु के अलावा जो इन्द्रियाँ हैं उनसे तथा मन से जो निर्विकल्प एवं निराकार बोध होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। यथा-दूर की कोई आवाज का कान तक पहुँचना। किसकी आवाज है? यह जानकारी नहीं होती, परन्तु सिर्फ आवाज आती है। अवधिदर्शन - आत्मा से रूपी पदार्थों का दर्शन होना अवधिदर्शन कहलाता है। इस तरह दर्शनोपयोग के कुल चार भेद हुए-केवलदर्शन, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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