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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन १०८ अंग को ही छू पाते हैं, सम्पूर्ण हाथी को एक साथ नहीं छू पाते; उसी प्रकार तत्त्वमीमांसक आंशिक ज्ञान में ही उलझे रहते हैं। तत्त्वमीमांसा एक जाल है जिसमें व्यक्ति दिन व दिन फँसता जाता है, उससे निकल नहीं पाता। उनके इस विचार की अभिव्यक्ति ब्रह्मजालसुत में देखी जा सकती है। एक बार श्रावस्ती के जेतवन में विहार के अवसर पर मालुक्यपुत्र ने बुद्ध से लोक के शाश्वत - अशाश्वत, अन्तवान - अनन्तवान होने तथा जीव देह की भिन्नता-अभिन्नता के विषय में दस मेण्डक प्रश्नों को पूछा था, जिसे बुद्ध ने अव्याकृत कहकर उसकी जिज्ञासा को शान्त कर दिया था। इसी प्रकार पोठ्ठपाद परिव्राजक ने जब ऐसे ही प्रश्न किए तब बुद्ध ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा था- "न यह अर्थ युक्त है, न धर्म युक्त है, न निरोध के लिए, न उपशम के लिए, न सम्बोधित परमार्थज्ञान के लिए और न निर्वाण के लिए है। इसलिए मैंने इसे अव्याकृत कहा है तथा मैंने व्याकृत किया है दुःख के हेतु को, दुःख के निरोध को, तथा दुःख-निरोधगामिनी प्रतिपद को । इस प्रकार बुद्ध ने आर्यसत्य यानी आचारमीमांसा से अपना चिन्तन शुरु किया । किन्तु जब वे दूसरे आर्यसत्य का प्रतिपादन करते हैं तो उसमें प्रतीत्यसमुत्पाद आ जाता है जो बताता है कि एक के बाद दूसरा कारण उत्पन्न होता है और जिससे परिवर्तनशीलता का बोध होता है। आगे चलकर परिवर्तनशीलता क्षणिकवाद का रूप ले लेती है अर्थात् हर क्षण परिवर्तन होता है। फिर अनात्मवाद तथा शून्यवाद का सिद्धान्त आ जाता है। इस तरह तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त प्रस्फुटित होते हैं जो बौद्धाचार को प्रभावित करते हैं । निर्वाण की व्याख्या पर पूर्णत: बौद्ध तत्त्वमीमांसा का प्रभाव है । मध्यममार्ग को अपनाने की बात इसलिए है कि प्रतीत्यसमुत्पाद में बताया गया है कि प्रत्येक वस्तु नित्य नहीं है, नष्ट होती है और नष्ट होकर पुन: जन्म लेती है। इस मान्यता में शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद दोनों का खण्डन किया गया है, क्योंकि शाश्वतवाद मानता है कि जो नित्य है वह समाप्त नहीं होता और उच्छेदवाद मानता है कि वस्तु नष्ट होती है पर पुनः उत्पन्न नहीं होती है। जैन एवं बौद्ध दोनों ही दर्शनों ईश्वर की सत्ता को अस्वीकार किया गया है। इसलिए दोनों ही अपनी आचारमीमांसा में यह मानते हैं कि व्यक्ति अपनी साधना, तपस्या, त्याग के आधार पर देवत्व की उँचाई तक पहुँच सकता है। वह सर्वज्ञ हो सकता है, केवली हो सकता है। ईश्वरवाद में ईश्वर ऊपर से अवतरित होता है या उतरता है, किन्तु जैन एवं बौद्ध दर्शनों में मानव कर्म के बल पर ऊपर की ओर ईश्वर की उँचाई तक चढ़ता है। यदि तत्त्वमीमांसा में ये दोनों दर्शन ईश्वर की सत्ता स्वीकार कर लिए होते तो इनका मानव इतना समर्थ नहीं बन सकता था। मानव में यह समर्थता योग-साधना के द्वारा ही आती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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