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जैन एवं बौद्ध योग का तत्त्वमीमांसीय आधार
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अद्वैतवेदान्त की तत्त्वमीमांसा कहती है- "ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या'। अर्थात् ब्रह्म ही मात्र सत् है और जो जगत के रूप में दिखाई पड़ता है वह मिथ्या है, भ्रम है। वह माया के कारण होता है। माया अज्ञान है, अविद्या है। आत्मा स्वतंत्र है, मुक्त है, किन्तु माया से आच्छादित हो जाने के कारण जीव के नाम से जानी जाती है और बन्धन की भागी हो जाती है। संसार व्यवहार रूप है जो असत् है, सिर्फ परमार्थ या ब्रह्म ही सत् है। जब तक जीव व्यवहार में घुला-मिला होता है तब तक वह बन्धन में होता है और व्यवहार से ऊपर उठकर जब वह परमार्थ से मिल जाता है तब उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अत: अद्वैतवेदान्त की तत्त्वमीमांसा यह बताती है कि संसार को मिथ्या मानों और अपने तथा ब्रह्म की एकता को पहचानों। जो तुम हो वही ब्रह्म है, जो ब्रह्म है वही तुम हो। यहाँ द्वैत नहीं सिर्फ अद्वैत है।
जैन दर्शन में भी ऐसी ही प्रक्रिया देखी जाती है अर्थात् उसमें भी तत्त्वमीमांसा से ज्ञानमीमांसा और ज्ञानमीमांसा से आचारमीमांसा होते हुए धर्म के क्षेत्र में आया जाता है। जैन दर्शन में द्रव्य को परमतत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। द्रव्य के प्रधानतः दो प्रकार हैं- अस्तिकाय और अनस्तिकाय। अस्तिकाय के पुन: दो विभाग देखे जाते हैं- जीव
और अजीव। जीव स्वभावत: स्व-प्रकाशित और पर-प्रकाशक होता है। जीव स्वतंत्र होता है। वह अनन्त चतुष्टय का धारक होता है। अत: सभी जीव समान होते हैं। अब प्रश्न उठता है कि जब सभी जीव समान होते हैं तो फिर अनेक प्रकार के जीव क्यों होते हैं? कोई जीव विकसित रूप में होता है तो कोई अविकसित रूप में। ऐसा क्यों? इसका उत्तर जैन आचारमीमांसा देती है- जीवों में जो अन्तर देखे जाते हैं, वे कर्मानुसार होते हैं। कर्मानुसार ही कोई छोटा शरीर पाता है तो कोई बड़ा शरीर पाता है। जैन आचारमीमांसा अहिंसा का प्रबल समर्थन करती है। कहा गया है- “अहिंसा परमो धर्मः", ऐसा क्यों? चूँकि हिंसा से कष्ट होता है। आचारांग में कहा गया है- सभी जीव सुख चाहते हैं, दु:ख कोई नहीं चाहता, सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। चूँकि हमें कष्ट होता है जब कोई किसी प्रकार से हम पर घात करता है तो हमें भी समझना चाहिए कि यदि हम किसी पर घात करेंगे तो उसको भी वैसा ही कष्ट होगा जैसा हमें होता है, क्योंकि सभी जीव समान हैं, यह तत्त्वमीमांसा बताती है।
बौद्ध दर्शन में तत्त्वमीमांसीय समस्याओं की अवहेलना हुई है। बुद्ध ने उन लोगों को नासमझ कहा जो अपने को तत्त्वमीमांसीय समस्याओं में उलझा लेते हैं। उनका कहना है कि तत्त्वमीमांसा से कोई निश्चित ज्ञान प्राप्त नहीं होता और न तो पूर्ण ज्ञान होता है। जिस प्रकार अंधों को हाथी का आंशिक ज्ञान प्राप्त होता है, क्योंकि वे हाथी के किसी एक
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