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जैन एवं बौद्ध योग-साहित्य
होते हैं। मोक्ष-प्राप्ति के लिए सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की अनिवार्यता निरूपित की गयी है। ध्यान के भेद-प्रभेद, ध्यान के महत्त्व आदि को बताते हुए मन की एकाग्रता पर विशेष बल दिया गया है। साथ में मन्त्र, जप, आसन आदि का भी वर्णन आया है। इसके अन्तर्गत २५९ पद्य निबद्ध हैं। पाहुडदोहा
इस ग्रन्थ के रचयिता के रूप में मुनिश्री रामसिंह का नाम जाना जाता है। यह अपभ्रंश भाषा का साहित्य है जिसमें २२२ दोहे निबद्ध हैं। इसका समय ई० सन् ९३३ और ११०० के बीच अर्थात् १००० के आसपास होना चाहिए। इसमें योग से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दों, यथा-शिवशक्ति, देहदेवली, सगुण-निर्गुण, दक्षिण-मध्य आदि का विवेचन भी देखने को मिलता है। परन्तु ज्यादातर दोहे ऐसे हैं जिनके द्वारा बाह्य क्रियाकाण्ड की निष्फलता तथा आत्मसंयम और आत्मदर्शन में ही सच्चा कल्याण है, का उपदेश दिया गया है। अत: कहा जा सकता है कि इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय योगीन्दुदेव कृत परमात्मप्रकाश और योगसार के प्रतिपाद्य विषय से साम्य रखता है। योगसार प्राभृत
इस ग्रन्थ की रचना मुनि श्री अमितगति ने की है । इसमें मुनिव्रत एवं श्रावकव्रत दोनों की चर्चा है। यह ९ अधिकारों में विभक्त है, जिसके अन्तर्गत जीव, अजीव, आस्रव,बन्ध, संवर,निर्जरा, मोक्ष, चारित्र एवं चूलिका आदि विषय पर प्रकाश डाला गया है। साथ ही योग सम्बन्धित अपेक्षित विषयों पर चर्चा की है। इसके अतिरिक्त जीव-कर्म का सम्बन्ध, कर्म के कारण, कर्म से छूटने के उपाय, ध्यान आदि की विस्तृत चर्चा है।
इसका रचना-काल १०वीं शताब्दी है तथा इसके अन्तर्गत ५४० श्लोक निबद्ध हैं। इसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है। ज्ञानार्णव
____ ज्ञानार्णव जैन योग का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।जिसकी रचना आचार्य शुभचन्द्र द्वारा हुई है और जो ३९ प्रकरणों तथा २२३० श्लोकों में निबद्ध है। इसके अन्तर्गत ध्याता का स्वरूप, ध्यान के लक्षण तथा उसके भेद-प्रभेदों३१ का विशेष रूप से विश्लेषणविवेचन हुआ है। साथ ही इसमें बारह भावनाओं३२ के स्वरूपों, संसार-बन्धन के कारण, कषाय, मन के विषय, आत्मा एवं बाह्य पदार्थों के बीच सम्बन्ध, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, मन्त्र, जप, शुभ-अशुभ, शकुन, नाड़ी आदि विषयों पर विस्तृत चर्चा है।
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