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तृतीय अध्याय
जैन एवं बौद्ध योग-साहित्य
जैन साहित्य
जैन धर्म-दर्शन एवं संस्कृति का मूलाधार आगम साहित्य है। आगम साहित्य की सुदृढ़ नींव पर ही जैन दर्शन का विशाल प्रासाद खड़ा है। आगम को परिभाषित करते हुए विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है- जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है वह शास्त्र आगम या श्रुत ज्ञान कहलाता है। आचार्य मल्लिषेण ने भी आप्तवचन से पदार्थों के ज्ञान करने को आगम कहा है। इसी प्रकार न्यायसूत्र में कहा गया है कि आप्तकथन आगम है।३ ।
जैन परम्परा में आगम के लिए विभिन्न शब्दों का प्रयोग देखने को मिलता है, यथा--- सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम', आप्तवचन, ऐतिह्य, आम्नाय, जिनवचन तथा श्रुत। किन्तु वर्तमान में 'आगम' शब्द ही ज्यादा प्रचलित है।
जैन साहित्य दो भागों में विभक्त है- पहला वह भाग जिसके अन्तर्गत महावीर से पहले के साहित्य हैं, जिन्हें पूर्व के नाम से जाना जाता है और दूसरा वह भाग जो महावीर के बाद के हैं, जिन्हें अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि महावीर से पूर्व भी साहित्य थे, क्योंकि महावीर से पहले तेईस तीर्थंकर हो चुके थे। आचार्य अभयदेव का कहना है कि द्वादशांगी से पहले पूर्व साहित्य निर्मित किया गया था। इसी से उनका नाम पूर्व रखा गया । इनकी संख्या चौदह है। महावीर के बाद के साहित्य जिनमें उनके उपदेश संकलित हैं, दो भागों में विभक्त हैं- अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य । अंगप्रविष्ट वे शास्त्र हैं जो गणधरों के द्वारा सूत्र रूप में बनाये गये हैं या जो गणधर के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित हैं। अंगबाह्य वे हैं जो स्थविरों अर्थात् बाद के आचार्यों द्वारा रचित हैं। अंगप्रविष्ट के अन्तर्गत द्वादशांगी आता है। इन आगम ग्रंथों में जैन धर्मदर्शन के सारे सिद्धान्त संकलित हैं। इनकी भाषाअर्द्धमागधी है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में भी योग विषयक साहित्य हैं जो शौरसेनी में रचित हैं।
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