________________
दान
[ 49 किञ्च दानेन भोगाप्तिस्ततो भवपरम्परा । धर्माधर्मक्षयात् मुक्तिमुमुक्षोर्नेष्टमित्यदः ।। नैव यत्पुण्यबन्धोऽपि धर्महेतुः शुभोदयः । वह्न ह्यि विनाश्येव नश्वरत्वात् स्वतो मतः ।।
प्रथम द्वात्रिंशिका, 7
जिज्ञासा-दान से भोग की प्राप्ति होती है अतः इससे भवपरम्परा बढ़ती है जबकि मुक्ति की प्राप्ति धर्म और अधर्म के क्षय से होती है । अतः मुमुक्षु के लिये दान इष्ट नहीं है।
समाधान-ऐसी बात नहीं है क्योंकि पुण्यबंध भी धर्म का हेतु होता है तथा शुभ परिणाम (उदय) वाला होता है । जिस प्रकार अग्नि दाह्य वस्तु लकड़ी कंडे आदि को जलाकर स्वयं नष्ट हो जाती उसी प्रकार पुण्य भी पाप को नष्ट कर स्वयं नष्ट हो जाता है, अर्थात् पुण्यरूप दान से भव-परंपरा नष्ट होती है, बढ़ती नहीं । यथार्थता तो यह है कि जैसे-जैसे साधक आगे बढ़ता है उसमें वस्तुओं के प्रति ममत्व घटता जाता है जिससे वह उपलब्ध वस्तुओं का उपयोग परहित में करने लगता है और उससे उदारभाव विकसित होने लगता है, यह उदारभाव ही दान का द्योतक है । अतः साधक जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है उसकी उदारता व दान गुरण भी उतना ही विकसित होता जाता है, यह उदारता का भाव 'दान' गुरण चेतना का निजगुण या स्वभाव है । स्वभाव होने से धर्म है। यही कारण है कि जब ममत्व पूर्णरूप से नष्ट हो जाता है और वीतराग अवस्था आ जाती है तब किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व या अपनेपन का भाव व स्वामित्वभाव नहीं रहता, तब शरीर, इन्द्रिय, मन
आदि जो कुछ भी अपने पास हैं वे अपने लिये नहीं रहते, क्योंकि उसे अपने लिए संसार की वस्तुओं से कुछ भी सुख पाना शेष नहीं रहता। अतः उसकी सारी वस्तुएं व प्रवृत्तियां सर्वहितकारी हो जाती हैं। उसमें अनन्त उदारता का भाव प्रकट होता है इसलिये वीतराग केवली को अनन्तदानी कहा जाता है। यदि उदारभाव
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org