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________________ 50 ] सकारात्मक अहिंसा या दान कर्मबन्ध का कारण होता तो साधक जैसे-जैसे आगे बढ़ता जाता है उसके अधिक से अधिक कर्मबंध होता जाता है और अनन्तदानी वीतराग केवली के अनन्त कर्मबंध होता है। यदि दान जीव के लिये किसी भी गुरण का घात करने वाला होता श्रर्थात् घातक होता तो साधक को वीतराग नहीं होने देता, वीतरागता में बाधक होता । पशु और मानव में अन्तर है तो उदारता का ही है । जहाँ उदारता है वहाँ मानवता है । उदारता व मानवता रहित मानव प्रकृति से भले ही मनुष्य हो, प्रकृति से पशु ही है । अत: जहाँ मानवता नहीं, वह मानव ही नहीं है । जो मानव नहीं है, वह मुक्ति का अधिकारी ही नहीं है । मुक्ति का अधिकारी वही है जो मानव है । कारण कि मानवता के अभाव में शील, संयम, तप, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, एवं सम्यक् चारित्र संभव ही नहीं है । जैसे भूमि के प्रभाव में बीज पनप नहीं सकता उसी प्रकार मानवता - उदारता रूप दान के प्रभाव में धर्म का पौधा पनप नहीं सकता । इसलिये दान को मुक्ति के मार्ग में प्रथम स्थान दिया है । दान को प्राथमिकता देने का एक कारण यह भी है कि शील, तप, संयम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि अन्य साधनाओं का लाभ तो साधक को स्वयं को ही मिलता है, परन्तु दान का लाभ स्व को, पर को, विश्व को व सबको मिलता है । विशेषत: दीन, दुःखी, अनाथ, रोगी, अपंग, दरिद्र आदि जीव दान से ही उपकृत होते हैं । दानी व्यक्तियों से ही सुन्दर परिवार व समाज का निर्माण होता है । जिस परिवार में ऐसे स्वार्थी व्यक्ति होते हैं जो परिवार के सदस्यों के हित का ध्यान नहीं रखते हैं, अपनी स्वार्थपूर्ति व सुख-सुविधा में लगे रहते हैं, उस परिवार में रात दिन कलह, संघर्ष, द्वन्द्व व तनावमय वातावरण रहता है, वह घर नरक बन जाता है । इसके विपरीत जिस परिवार में उदारचेता व्यक्ति होते हैं जो स्वयं दुःख उठाकर भी परिवार के सदस्यों के लाभ व सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं उस घर में प्रेम की गंगा बहती है जिसकी सरसता से सारा परिवार रस में सराबोर हो जाता है । वहां स्वर्गीय वातावरण होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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