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दान
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इसी प्रकार दानी व उदार व्यक्तियों से ही सुन्दर समाज का निर्माण होता है । ऐसे व्यक्तियों से समाज की शोभा बढ़ती है। वे समाज-भूषण होते हैं। उनसे समाज विकसित होता है। मानवसमाज व मानव का विकास दान या परोपकार पर ही निर्भर है।
'त्यागो दानम्' (तत्त्वार्थ-सर्वार्थसिद्धिः) अर्थात् परोपकार के लिये अपनी भोग्य सामग्री का त्याग करना दान है । दान से प्रात्मा पवित्र होती है । जिससे प्रात्मा पवित्र हो उसे पुण्य कहा जाता है और उसे ही धर्म कहा जाता है । इसीलिये प्राचीन ग्रन्थों में पुण्य और धर्म पर्यायवाची ही रहे हैं । नव पुण्यों में अन्न, जल, वस्त्र, पात्र
आदि के दान को पुण्य कहा ही है, यह सारा दान 'दयाभाव' से होता है, दया धर्म है यह सर्वमान्य है । अतः दान पुण्य व धर्म-रूप है । ख्याति प्राप्त प्राचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने पूर्वोक्त प्रथम द्वात्रिंशिका के सातवें श्लोक में 'धर्माधर्म क्षयात् मुक्तिः' कहा है। जिसका अर्थ है धर्म और अधर्म के क्षय से मुक्ति प्राप्त होती है। इस कथन में अधर्म शब्द पाप का व धर्म शब्द स्पष्टतः पुण्य का ही द्योतक है। यही नहीं कर्मसिद्धान्त में यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि पुण्य से पाप कर्मों की स्थिति व अनुभाग का क्षय होता है । अतः कर्म क्षय का हेतु होने से 'दान' धर्म-रूप ही है इसलिये वर्तमान में प्रचलित यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण तथा निर्मूल है कि दान पुण्य ही है ब कर्मबंध का कारण होने से धर्म नहीं है।
वीतराग केवली तो अनन्तदानी होते ही हैं, साधु भी दानी होता है क्योंकि वह ज्ञानदान करता ही रहता है । परन्तु, गृहस्थ के लिए भी दान का महत्त्व कम नहीं है जैसा कि पद्मनन्दिपंचवि- ।। शतिका में कहा है :
नानागृहव्यतिकराजितपापपुञ्ज, खजीकृतानि गृहिणो न तथा व्रतानि । उच्चैः फलं विदधतीह यथैकदापि । प्रीत्यातिशुद्धमनसा कृतपात्रदानम् ।। 2.13 ।।
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