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सकारात्मक अहिंसा
अर्थात् जगत् में अति विशुद्ध मन वाले गृहस्थ के द्वारा प्रेमपूर्वक सुपात्र के लिये दिया गया दान जितना उन्नत फल देता है उतना घर की अनेक बाधाओं व पापपुञ्ज से कुबड़े हुए अर्थात् शक्तिहीन हुए गृहस्थ के व्रतों से उन्नत फल नहीं मिलता है । अर्थात् गृहस्थ के लिये 'दान' श्रेष्ठ धर्म है तथा उत्तम फल देने वाला है।
दान में वस्तु का महत्त्व उतना नहीं है जितना भावना का है। चित्त की जिस प्रकार की चेतना है, सद्भाव की जैसी न्यूनाधिकता से दान दिया जाता है, वैसा ही फल मिलता है। कहा भी है "यादृशी भावना यस्य तादृशी सिद्धिर्जायते" अर्थात् जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि मिलती है।
दान धर्म समस्त सद्गुणों का मूल है, अतः पारमार्थिक दृष्टि से इसका विकास अन्य सद्गुणों के उत्कर्ष का बीज है और व्यावहारिक दृष्टि से मानवीय जीवन-व्यवस्था के सामंजस्य का आधार है।
दुल्लहा उ मुहादाई मुहाजीवी वि दुल्लहा । मुहादाई मुहाजीवी दोवि गच्छंति सोग्गइं ॥
दशवैकालिकसूत्र-अ. 5 उ. 1 गा. 100 अर्थात् निष्काम भाव से दान देने वाला व निष्काम भाव से दान लेने वाला ये दोनों ही दुर्लभ हैं । निष्काम भाव से दान देने वाला व लेने वाला दोनों सद्गति को जाते हैं।
दान से, दान देने वाले तथा दान स्वीकार करने वाले दोनों का हित होता है । देने वाले का हित तो उस देय वस्तु से राग, सुखासक्ति व ममता का क्षयरूप त्याग है। इससे उदारता रूप महान् गुरण प्रकट होता है। दान स्वीकारकर्ता का हित यह है कि इसमें दाता को उदारता के प्रतिप्रियता का उदय होता है, उसके हृदय में उदारता की महिमा व रुचि जागृत होती है जिससे उसमें समस्त सद्गुणों का विकास होता है । .
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