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दान ]
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वीतराग केवली अनन्तदानी होते हैं। "दान" करुणा रूप स्वभाव का ही क्रियात्मक रूप है। केवली सभी को उपदेश देते हैं, उसमें अभव्य जीव भी होते हैं और उसमें कुपात्र-सुपात्र का कोई भेद नहीं होता है। अतः दाता की दृष्टि में दान में कुपात्रता-सुपात्रता का भेद होता ही नहीं है । यदि कुपात्रता-सुपात्रता का भेद होता तो केवली के प्रवचन में से प्रभव्य जीवों को निकाल दिया जाता, परन्तु ऐसा होता नहीं है । कुपात्रता-सुपात्रता तो दान ग्रहण करने वाले व्यक्ति में अपनी व्यक्तिगत होती है। कोई दाता किसी को हितकारी अच्छी वस्तु दान में दे और वह उसका दुरुपयोग करे इसमें दाता का कोई दोष नहीं है। दाता तो दान सामने वाले के हित के लिए ही देता है। दाता का यह दान स्व पर हितकारी व सर्व-कल्याणकारी होता है। दान मुक्ति का कारण होने से धर्मरूप ही है। दिगंबर विद्वान् जिनेन्द्रकुमार वर्णी एवं युगलकिशोरजी मुख्तार ने प्रस्तुत पुस्तक में दिए गए अपने लेख में सेवा को धर्म लिखा है सो उपयुक्त हो है। धर्म के साथ पुण्य वैसे ही लगा हुआ है जैसे काया के साथ छाया।
वीतराग के अनन्तदानी होने का अभिप्राय यह भी है कि वीतराग के पास शरीर, इन्द्रिय, मन आदि जो कुछ भी हैं वे सब विश्व-हित के लिए ही हैं, अपने लिए नहीं। उन्हें अपने लिए विश्व में कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है । वीतराग को अपने सुख के लिए कुछ भी वस्तु संसार से लेने की इच्छा लेश मात्र भी नहीं रहती है ।
अनन्तदानी केवली की दानप्रवृत्ति को परहित के लिए न मानें तो उसे निष्प्रयोजन मानना होगा । पूर्णज्ञानी वीतराग प्रभु निष्प्रयोजन कोई प्रवृत्ति करें यह सम्भव नहीं है । इससे स्पष्ट है कि वीतराग महापुरुष की जो भी प्रवृत्ति होती है वह सर्वजनहिताय होती है, दानरूप ही होती है। इसलिए वे अनन्तदानी कहलाते हैं। दान की प्रवृत्ति विधेयात्मक अहिंसा ही है। यदि वीतराग में देने का भाव न होता तो उनके लिए अनन्तदानी शब्द का विशेषण न लगता, अनन्तदानी के स्थान में अनन्त त्यागी शब्द का ही
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