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सकारात्मक अहिंसा
प्रयोग होता। परन्तु, त्याग के साथ दान भी अभीष्ट है। इसलिए वीतराग भगवान् “अनन्तदानी" गुरण से विभूषित हैं।
जहां राग होता है, वहां भोग होता है, स्वार्थ होता है । जिस वस्तु से राग है उस वस्तु से ममता होती है, उसकी आवश्यकता प्रतीत होती है, उसके साथ फलासक्ति होती है अतः वह वस्तु दी नहीं जा सकती है। फलत: रागयुक्त मानव पूर्ण त्यागी नहीं हो सकता, पूर्ण दानी भी नहीं हो सकता । वह राग की पूर्ति करने वाली वस्तु को बचा कर रखेगा, परन्तु वीतराग को लेश मात्र भी राग नहीं होता है । अतः उसे अपने लिए कोई भी वस्तु तन, मन, इन्द्रिय, वचन आदि नहीं चाहिए। उससे इन सबकी प्रवृत्ति जगत्हित के लिए होती है। यही अनन्तदान है। यही विधेयात्मक अहिंसा का सर्वोत्कृष्ट रूप है।
जैनागम स्थानांगसूत्र के दशवें स्थान में दान के दश स्थान गिनाये हैं, जिनमें अनुकम्पा और करुणा को भी दान में स्थान दिया गया है। आगमों में दान के अनेक उदाहरण पाते हैं, यथा-सभी तीर्थंकर अपनी दीक्षा के पूर्व एक वर्ष तक मुक्त हस्त से दान देते हैं । श्रावक परदेशी राजा ने दानशाला खुलवायी, श्राविका रेवती ने भगवान् महावीर को बिजोरापाक का दान देकर व श्रेयांसकुमार ने भगवान् ऋषभदेवको इक्षुरस का दान देकर तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया। चन्दनबाला ने भगवान् महावीर को दान देकर अपना जीवन धन्य बनाया।
जैनधर्म में नव प्रकार के पुण्य कहे गये हैं, यथा-अन्न, जल, आवास, शय्या, वस्त्र, मन, वचन, काया और नमस्कार । इन नव प्रकार के पुण्य या पावन कार्यों के वर्तमान में विशेष और अतिमहत्वपूर्ण रूप भी सामने आये हैं, जैसे-कायपुण्य में पहले काया की क्रिया द्वारा दूसरों की सेवा करना ही सम्मिलित होता था। आज तो काया का अंग या अंश भी दान में दिया जा सकता है, जैसेरक्तदान, नेत्रदान, गुर्दादान प्रादि । रक्तदान से व्यक्ति मृत्यु से बच जाता है । अतः यह जीवनदान है, मानव को जीवन देना है।
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