SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48 ] सकारात्मक अहिंसा अर्थात् सर्व तीर्थंकरों ने दान, शील, तप और भाव-रूप चार प्रकार का धर्म कहा है तथा इसे ही श्रुतधर्म और चारित्रधर्म रूप में दो प्रकार का भी कहा है। चार प्रकार के धर्मों में भी सर्व प्रथम स्थान दान का है। - यह सर्व विदित है कि भोगी व्यक्ति स्वार्थी होता है, वह अपने सुख को ही सब कुछ समझता है, भले ही उसकी स्वार्थपूर्ति से दूसरों को कितना ही कष्ट पहुंचता हो या उनका अहित होता हो । इसके विपरीत त्यागी व्यक्ति उदार होता है, उसे अपने सुख व सुख-सामग्री का वितरण कर दूसरों के दुःख को दूर करने, उन्हें प्रसन्न देखने में प्रसन्नता होती है । भोगी व्यक्ति इन्द्रियों का दास होता है। इन्द्रियों की दासता पशुता की द्योतक है । इन्द्रियों का दास स्वार्थी होता है । अतः स्वार्थपरता पशुता की सूचक है । स्वार्थी व्यक्ति हृदयहीन होता है। उसमें जड़ता होती है, संवेदनशीलता, सहयोग व परोपकार की भावना नहीं होती । जड़ व चेतन में अन्तर है तो वह संवेदनशीलता का ही है। जिसमें संवेदनशीलता नहीं है वह जड़ है, जिसमें संवेदनशीलता है वह चेतन है । संवेदनशीलता का विकास ही चेतना का विकास है । संवेदनशील व्यक्ति में ही परोपकार या दान की भावना जगती है। अतः परोपकार या दानभावना की जागृति व वृद्धि चेतना के विकास की वृद्धि की द्योतक है। करुणा, अनुकम्पा, वात्सल्य, भ्रातृत्व, मैत्री आदि भाव संवेदनशीलता के ही परिचायक हैं, इन्हीं का क्रियात्मक-रूप परोपकार, दान या सेवा है। वात्सल्यभाव सम्यक्त्व का अंग या प्राचार है और सम्यक्त्व धर्म है । अतः अनुकम्पा और वात्सल्य भी धर्म ही है। करुणा, अनुकम्पा, वात्सल्य, मैत्री आदि भाव किसी कर्म का फल या उदय नहीं है अपितु स्वतः सहज जागृत होते हैं अतः स्वभाव है। जो स्वभावरूप होता है वह धर्म है । अतः ये स्वभाव धर्मरूप हैं। धर्म कर्मबन्ध का कारण कदापि नहीं होता है प्रत्युत कर्म-क्षय का कारण होता है। अतः करुणा आदि भावों को कर्म-क्षय का कारण न मानना और कर्म-बंध का कारण मानना भूल है जैसा कि प्राचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy