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दान
सेवा का ही दूसरा रूप दान है। दान का लक्षण बताते हुए वाचक श्री उमास्वाति ने कहा है
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"अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम् " तत्त्वार्थसूत्र 7 - 33 अर्थात् अनुग्रह के लिये अपनी वस्तु का त्याग करना दान है । अनुग्रह की व्याख्या करते हुए कहा है "स्वपरोपकारो अनुग्रहः " अर्थात् श्रपना और दूसरों का उपकार 'भला' करना अनुग्रह है । स्वार्थसिद्धि - टीका में कहा है "परानुग्र बुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं दानम्" अर्थात् दूसरे का उपकार हो, इस बुद्धि से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है। त्याग को जैनागम में धर्म कहा है अतः 'दान' धर्म है । धर्म होने से मुक्ति का मार्ग है,
यथा
दुर्गतिप्रपतज्जन्तुधारणाद् धर्म उच्यते । दानशीलतपोभावभेदात् स तु चतुविधः ॥ (त्रिषष्टिशला कापुरुषचरितम् 2-1 )
अर्थात् दुर्गति में पड़ते हुए जीव को बचावे, आधार दे वह धर्म है । 'धर्म' दान, शील, तप और भाव के भेद से चार प्रकार का है । यही तथ्य सप्ततिशतस्थान प्रकरण में भी प्रस्तुत किया है, यथा
दान के दो मूल तत्त्व हैं- 1. त्याग और 2. उपकार | 'त्याग' दान का प्रारण या श्रात्मा है और परोपकार शरीर । त्याग अपनी वस्तु के प्रति ममत्वभाव के नाश का द्योतक है । ममत्व का नाश भोगभाव के नाश का, स्वार्थपरक भाव के नाश का द्योतक है । स्वार्थपरता के नाश से उदारता आती है और उदारता का क्रियात्मकरूप ही उपकार या सर्वहितकारी प्रवृत्ति है । यह दान का दूसरा मूल तत्त्व है ।
दाणं सोलं च तवोभावो, एवं चउव्विहो धम्मो । सव्व जिणेहि भणिश्रो, तहा दुहा सुप्रचरितेहि ||"
1. द्रष्टव्य, सप्ततिशत स्थानप्रकरण, गाथा 96
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