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सेवा
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समुदाय समाज का ही अंग होता है । इस प्रकार हमारी कर्तव्यपरायणता, उदारता, प्रियतापूर्वक की गई सेवा प्रवृत्ति समाज में कर्तव्यपरायणता, उदारता एवं प्रियता उत्पन्न कर सुन्दर समाज के निर्माण में सहायक सिद्ध होगी । सच्चा सेवक सामग्री के सुख भोग का त्यागी होता है अतः वह उसका उपयोग सर्वहितकारी प्रवृत्ति में करता है जिससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है । पर-पीड़ा से पीड़ित सेवकों ने ही भौतिक उन्नति एवं आदर्श समाज का निर्माण किया है । भोगी व स्वार्थी व्यक्तियों ने तो संघर्ष, संहार व संकट को ही जन्म दिया है ।
जहां केवल स्वार्थपरता है वहां समाज का निर्माण नहीं होता । यही कारण है कि पशुत्रों का कोई अपना समाज या संस्था नहीं होती । मानव सामाजिक प्राणी है । सामाजिकता का आधार ही पारस्परिक सहयोग अर्थात् सेवा है । मानव समाज की सुख-समृद्धि की अभिवृद्धि पारस्परिक सहयोग या सेवा कार्य पर ही निर्भर है । मानव समाज में जितनी मानवता या सेवा - परायणता की वृद्धि होगी, उतनी सुख व समृद्धि में भी वृद्धि होगी, सुन्दर समाज का निर्मारण होगा । श्रतः मानव मात्र का कर्तव्य है कि वह अपने को प्राप्त तन, मन, धन आदि समस्त सामग्रियों का उपयोग सेवा में करे । इसी में मानव का व मानव समाज का हित निहित है ।
सेवा आध्यात्मिक दृष्टि से राग-निवारण का और भौतिक दृष्टि से सुन्दर समाज के निर्मारण का हेतु है । सुन्दर समाज के निर्माण में ही, मानव समाज से सम्बन्धित विश्व की प्रार्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि समस्त समस्याओं का अंत निहित है । समस्याओं के अन्त होने से समाज में सुख-शांति का प्रसार व वास्तविक उन्नति संभव है । जीवन के उन्नतशिखर पर चढ़ने के लिए सेवा सोपान है । इससे जीवन का सर्वाङ्गीण विकास होता है ।
सेवा सर्वदा सर्वत्र कल्याणकारी है - वस्तुएं साधक के लिए साधन सामग्री है, भोगी के लिए भोग- सामग्री है । धर्म, दोषों के त्याग में है । वस्तु का त्याग तो दोष के त्याग का प्रतीक है । दोष का त्याग नहीं किया और वस्तु का त्याग कर दिया तो कोई हित नहीं । हित
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