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सेवा
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प्रबृत्ति करता है वह नवीन राग से नहीं बंधता है और उदयमान राग से रहित हो जाता है इसलिए प्रवृत्ति की सार्थकता सेवा में है । इस सेवा से ही पराश्रय का अंत संभव है ।
श्रतः प्रवृत्तिमार्गी को पराश्रय या पराधीनता का अंत करने एवं स्वाधीनता प्राप्ति के लिए पराश्रय से सुख भोगने की भावना को पर-सेवा की सद्भावना में परिवर्तित करना होगा क्योंकि जिस वस्तु का उपयोग किसी व्यक्ति की सेवा में किया जाता है उस वस्तु की श्रासक्ति मिट जाती है और जिस व्यक्ति की सेवा की जाती है उसके प्रति मोह मिट जाता है। जिसके प्रति प्रासक्ति व मोह नहीं रहता उससे संबंधविच्छेद हो जाता है अतः सेवारूप प्रवृत्ति हमें पराश्रय- पराधीनता से मुक्त करने में समर्थ है । यही सच्ची मुक्ति है । सेवा से सुन्दर समाज का निर्मारण
व्यक्तियों का समुदाय ही समाज है । अतः जैसे व्यक्ति होते हैं, वैसा ही समाज का निर्माण होता है अर्थात् जो गुण-दोष व्यक्तियों में होते हैं वे ही गुण-दोष उनसे निर्मित समाज में आ जाते हैं । समस्त सामाजिक बुराइयों व दोषों की जड़ समाज के व्यक्तियों की स्वार्थपरक संकीर्ण प्रवृत्तियां हैं तथा समाज की समस्त अच्छाइयों की जड़ समाज के लोगों की सेवावृत्ति है । वस्तुतः समाज का प्रारण या मूल तत्त्व पारस्परिक स्नेह व सेवाभाव है । सेवाभाव के प्रभाव में समाज सुन्दर नहीं रहता, वह स्वार्थी व्यक्तियों का समुदाय मात्र रह जाता है । इसलिए सेवा सुन्दर समाज का अनिवार्य तत्त्व है ।
सुन्दर एवं चारित्रनिष्ठ समाज वह है जिसमें सबके अधिकार सुरक्षित हों । यह तभी संभव है जब समाज में कर्तव्यनिष्ठता हो, उदारता हो तथा सद्भावना हो । जिस समाज के व्यक्तियों में ये गुरण पाए जाते हैं वही स्वस्थ, चारित्रनिष्ठ एवं सुन्दर समाज है । जिस समाज में सद्भाव है, वह ही स्वस्थ व सुन्दर समाज है । सद्भाव का भावात्मकरूप सर्वहितकारी भावना या सर्वात्मभाव है तथा सद्भाव का क्रियात्मकरूप सद्व्यवहार या सेवा है ।
सुन्दर व्यक्ति से सुन्दर समाज का निर्माण होता है । काररण कि सद्भावना वाला व्यक्ति अपने संपर्क में आने वाले समाज के
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