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सकारात्मक अहिंसा
सेवा लेने का संकल्प करना, सेवा लेने का सुख भोगना बंधनकारी है, परन्तु यदि कोई अपनी प्रसन्नता के लिए सेवा करता है तो उसके संकल्प को पूरा करने के लिए, उसकी प्रसन्नता के लिए साधक सेवा को स्वीकार कर सकता है । यह सेवा लेना सेवा करना है । कारण कि यह सेवा अपने सुख के लिए नहीं दूसरों को प्रसन्नता देने के लिए है । ऐसी सेवा लेना बंधनकारी व ऋणरूप नहीं होती क्योंकि उसमें सेवा लेने का भाव नहीं रहता और न सेवा के सुख भोगने का ही भाव रहता है । उस सेवा में न कर्तृत्व-भाव है प्रौर न भोक्तृत्व-भाव । परन्तु ऐसी सेवा लेने में भी यह खतरा तो बना ही रहता है कि साधक अपने मन को मिथ्या ही संतोष देता रहे कि वह दूसरों की संकल्पपूत्ति के लिए ही उसे सेवा का अवसर दे रहा है और भीतर ही भीतर वह सेवा का सुख भोगता रहे। इसलिए जहां तक बन सके साधक अपने को दूसरों से सेवा लेने से बचावे |
मुक्ति प्राप्ति-मुक्ति है बंधन से छुटकारा पाना । बंधन है पराधीन होना और पराधीनता वहाँ होती है जहां मोह और आसक्ति होती है । मोह और आसक्ति मिटने पर पराधीनता मिट जाती है और स्वाधीनता प्राप्त हो जाती है, यही मुक्ति है । स्वाधीनता की अनुभूति तब ही संभव है जब हमारा सुख पराश्रित न रहे । पराश्रय से छुटकारे के दो मार्ग हैं | प्रथम निवृत्तिपरक एवं द्वितीय प्रवृत्तिपरक । निवृत्ति का अर्थ है कुछ न करना । साधक जब इस सत्य को समझ लेता है कि करते-करते अब तक का सारा जीवन बीत गया, परन्तु करने से जो फल मिला उससे न तो करने का अंत हुआ और न सुख की वृद्धि ही हुई और अब भी करना ज्यों का त्यों शेष है और जीवन में प्रभाव का दुःख भी विद्यमान है । अतः करना कुछ अर्थ रखता ही नहीं है । जो व्यक्ति इस सत्य अर्थात् विवेक को स्वीकार कर लेता है वह साधक सहज निवृत्ति को प्राप्त होकर मुक्त हो जाता है ।
संसारी प्राणी रागयुक्त होने के कारण बिना प्रवृत्ति के रह नहीं सकता अतः उसको मुक्ति का प्रवृत्तिपरक मार्ग अपनाना पड़ता है । प्रवृत्तिपरक मार्ग में सेवा का महत्त्वपूर्ण स्थान है । जो सेवा-रूप
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