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________________ सेवा [ 41 तुल्य ही बीतता है । वह मानवता के, मानव-धर्म के असीम रस के आस्वादन के अनुभव से वंचित रह जाता है । मानवता की भूमि में ही संवर, निर्जरा व पुण्यरूप साधनाएँ पनपती एवं फलती-फूलती हैं । जहां मानवता ही नहीं वहां जीवन नहीं जड़ता है, धर्म नहीं धिक्कारता है। मानवता का भावात्मकरूप करुणा है और क्रियात्मक रूप उदारता व सेवा है। जिस जीवन में करुणा और सेवा नहीं वह मानव-धर्म से विमुख है । सेवा, गहस्थ साधक के लिये भी सहज और सुगम साधना है, जो उसके रागादि दोषों को कम करती हुई, गलाती हुई, उसे त्याग और संयम की ओर, मुक्ति की ओर आगे बढ़ाती है। वही गृहस्थ श्रेष्ठी या सेठ कहलाता है जो सेवाभावी हो, उदारमना हो, धन होने से कोई सेठ नहीं होता है । धन तो वेश्या और कसाई के पास भी होता है परन्तु वे श्रेष्ठ या सेठ नहीं कहे जाते और आदर के पात्र भी नहीं होते हैं। कल्याण सेवा करने में है, सेवा लेने में नहीं-सेवा करना अच्छा है, परन्तु किसी से सेवा लेना अर्थात् सेवा का सुख भोगना विषय-भोग ही है जो लगता तो बड़ा ही मधुर है, परन्तु भयंकर विष है । कारण कि जिससे सेवा का सुख भोगा जाता है उस व्यक्ति के प्रति राग-भाव जागृत होता है एवं उसका ऋण-भार आ जाता है । उस ऋण से छुटकारा पाने का उपाय है, सेवा करना । किसी के अहसान का बदला सेवा से ही चुकाया जा सकता है। यही कारण है कि मातापिता, पुत्र, पौत्र पति-पत्नी आदि की बीमारी अवस्था में जितनी सेवा की जाती है, उनके मरने पर उतनी ही मोहजन्य वेदना कम होती है, पछतावा कम होता है, स्मृति शीघ्र धूमिल हो जाती है। और जो उनकी सेवा करने से वंचित रहता है, उसका मोह बना रहता है, बार-बार स्मृति प्राती है, हृदय कचोटता है। इस प्रकार कर्तव्यरूप सेवा भी मोह गलाने में कारण बनती है । जहाँ तक हो, साधक को चाहिए कि वह सेवा लेने से बचे । इसलिए जैनधर्म में साधु को गृहस्थ से भार उठाना वस्तु मंगवाना आदि से वालेने का निषेध किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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