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________________ 40 ] सकारात्मक अहिंसा पाती है, प्रेम का वह रस हृदय को प्रफुल्लित कर देता है और विषयों के क्षणिक सुख को खा जाता है। इस प्रकार नीरसता का सरसता में रूपान्तरण हो जाता है । कोई भी प्रारणी रसरहित, नीरस जीवन नहीं जी सकता, कोई न कोई रस तो उसे जीवन में चाहिये ही। यह नियम है कि जब तक जीवन में निःस्वार्थ प्रेम का रस नहीं उमड़ेगा तब तक जीवन में नीरसता आयेगी ही और नीरसता की भूमि में वासना की उत्पत्ति होगी ही। अतः कामना-उत्पत्ति-रूप अशान्ति के दुःख से छुटकारा पाना है, विषय के क्षणिक पराधीन सुख से मुक्ति पाना है तो इसका उपाय है, राग के रस का प्रेम के रस में रूपान्तरण करना। प्रेम का क्रियात्मक रूप सर्वहितकारी प्रवृत्ति है, जिसे सेवा कहा जाता है । सेवा से हृदय का विषयरूप विष धुलता है, विषय का विष प्रेमरूप अमृत में रूपान्तरित हो जाता है। सेवा उदयमान राग रूपी रोग को प्रेम में रूपान्तरण करने की क्रियात्मक साधना है । साधू के लिये यद्यपि संयम और तपरूप निवत्तिपरक साधना ही प्रमुख है फिर भी सर्वहितकारी, सर्व कल्याणकारी प्रवृत्ति के प्रेम से, उसका हृदय भी ओत-प्रोत रहता है। सेवा से जैसे-जैसे राग-द्वेष आदि दोष घटते जाते हैं वैसे-वैसे साधक का हृदय करुणा व प्रेम से अधिकाधिक भरता जाता है और वीतराग हो जाने पर अनंत करुणा, अनंत दान, अनंत प्रेम (अक्षय रस) अनंत ऐश्वर्य आदि उपलब्धियां प्राप्त हो जाती हैं। मानवता-विषय-सुख जड़ता पैदा करता है अतः विषय-सुख के भोगी जीव में जड़ता अधिक होती है । वह अपने विषय में इतना आबद्ध होता है कि अपने सुख की प्राप्ति के लिए दूसरों की कितनी ही हानि हो, कितना ही दुःख हो, उसका हृदय नहीं पसीजता है । उसे अपने विषय-सुख की पूर्ति के लिये दूसरों का शोषण, अपहरण, हिंसा आदि करने में संकोच नहीं होता है । वह हृदयहीन होता है, उसका हृदय प्रस्तरवत् होता है । वह आकृति से भले ही मानव हो, उसमें मानवता नहीं होती । उसका मानव-जीवन पशु व पाषाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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