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सेवा
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बीज से करोड़ों कड़वी निम्बोलियां और श्राम के बोये गये बीज से हजारों मधुर ग्राम के फल लगते हैं । इसी प्रकार सेवक की सेवा के लिए समस्त विश्व उद्यत रहता है, सच्चे सेवक को विश्व में शारीरिक आवश्यकता पूर्ति के सिवाय किसी से भी कुछ नहीं चाहिये । दूसरे शब्दों में कहें तो सेवक का जीवन सारे विश्व का जीवन होता है । जीवन का विस्तार विश्व के रूप में हो जाना ही जीवन का पूर्ण विकास है । इससे बढ़कर कोई जीवन नहीं हो सकता है । इस प्रकार सेवक को उसकी समस्त श्रावश्यकताओं की पूर्ति से सैकड़ों गुना अधिक सब कुछ मिलता है । उसके जीवन में कभी प्रभाव का अनुभव अर्थात् द्रारिद्र्य का दुःख नहीं होता है । वह सदा प्रसन्न रहता है । आवश्यकता की पूर्ति हो जाना और लेश मात्र भी प्रभाव न रहना ही सच्ची संपन्नता है । इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि सेवक से बढ़कर विश्व में कोई अधिक संपन्न नहीं होता । श्राशय यह है कि सेवा से दारिद्र्य का संपन्नता में रूपान्तरण हो जाता है ।
जिस राग या दोष के उदय को विवेक या ज्ञान के बल से न मिटाया जा सके उस राग का रूपान्तरण सर्व हितकारी प्रवृत्ति रूप सेवा से प्रीति में हो जाता है । जैसे किसी को बोलने का राग है तो वह दूसरों के लिये हितकारी वचन बोलकर अपने राग को प्रीति में बदल सकता है । खाने के राग का दूसरों को खिलाने में, भोगासक्ति का भगवद्भक्ति में तोड़-फोड़ प्रादि विध्वंसात्मक प्रवृत्ति का रचनात्मक कार्य में उदात्तीकरण किया जा सकता हैं ।
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सेवा में अपना सुख बांटा जाता है और दूसरों का दुःख बंटाया जाता है । अपना सुख बांटने से सुख का राग गलता है और दूसरों का दुःख बंटाने से अपना दुःख मिटता है । साथ ही विषय - भोगजन्य सुख का, प्रीति के प्रक्षय सुख में रूपान्तरण हो जाता है तथा जिसकी सेवा की जाती है, उससे सेव्य को जो प्रसन्नता होती है, उससे सेवक का हृदय भी प्रसन्नता से भर जाता है जिससे प्रेम उमड़ता है । प्रेम का रस विषय-सुख से भिन्न होता है, निराला होता है । वह रस अक्षय होता है । जब भी उसकी स्मृति
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