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________________ सेवा [ 37 है। सेवक को इस दोष से बचना चाहिए । सेवा में जितना अंश त्याग का होगा वह उतनी ही निर्दोष होगी और सेवा में जितना अंश भोग का होगा वह उतनी ही दोषमय होगी। उदारता-सेवा का एक फल यह भी होता है कि जिसकी सेवा की जाती है उसमें स्वत: सेवा का भाव व उदारता जागृत होती है। सेवक में त्याग एवं उदारता दोनों होती है जो सेव्य में भी इनका बीजारोपण करती है । वस्तुतः दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना और अपने अधिकारों का त्याग ही सेवा का स्वरूप है । ____जो उदार होता है वह किसी का बुरा नहीं चाहता। जो किसी का बुरा नहीं चाहता वह सुखियों देखकर को प्रसन्न तथा दुःखियों को देखकर करुणित होता है । सुखियों को देखकर प्रसन्न होने से सुख-भोग की कामना क्षीण होती है। इस प्रकार सेवा, वासनाकामना के त्याग में सहायक होती है । सेवा वही कर सकता है जो दूसरों के दुःखों की अनुभूति स्वयं करता हो, अतः सेवा द्वारा दूसरों के दुःखों को दूर करना अपने ही दुःखों को दूर करना है । दूसरों को प्रसन्न करना अपने ही को प्रसन्न करना है। सेवा सदैव अपने से अधिक दुःखियों की ही होती है। यह मनोवैज्ञानिक नियम है कि अपने से अधिक दुःखियों को देखने पर अपने दुःख को सहन करने की क्षमता प्राती है, दुःख क्षीण होता है और भोग-वासना भी क्षोण होती है। हमारी सेवा रूप उदारता का प्रभाव जिसकी हम सेवा करते हैं, उस पर भी पड़ता है और वह ऐसा अनुभव करता है कि दूसरों को सहयोग देने का भी एक सुख है, दूसरों की सेवा करना अच्छा कार्य है। इससे उसमें उदारता की भावना तथा सेवा की प्रवृत्ति जागती है जिससे उसका भोगभाव एवं स्वार्थभाव गलता है । अर्थात् सेवा से सेवक एवं सेव्य दोनों को लाभ होता है। दोनों में उदारता की भावना जागती है तथा दोनों अपने दोषों को दूर करने में संलग्न होकर तुच्छ स्वार्थभाव को छोड़ देते हैं। उदात्तीकरण-आधुनिक मनोविज्ञान की एक महत्त्वपूर्ण देन है"उदात्तीकरण का सिद्धांत । होन-वृत्तियों का महान् वृत्तियों में,दोष का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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