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सकारात्मक अहिंसा
दीन-दु:खियों के प्रति प्रात्मीयता का व्यवहार करना आत्म-भाव भक्ति है। इस प्रकार दरिद्रनारायण की भक्ति भगवान् की नवधा भक्ति है।
जो दरिद्रों या दोनों की बन्धु के समान सेवा करता है वह दीनबन्धु है, पतितों का उत्थान करता है वह पतितपावन है, दोनों पर दया करता है वह दीनदयाल तथा जो दोनों का दुःख हरता है वह दु:खहारी है । दीनबन्धु, दीनदयाल, दुःखहारी, पतितपावन ये सब प्रभु के पर्यायवाची शब्द हैं, परमात्मा के नाम हैं, अतः जो दीनदरिद्र की सेवा करता है, वह प्रभु-तुल्य बन जाता है, कारण कि उसमें प्रभु की विशेषताएं आ जाती हैं । संसार में जितने भी प्रभु के अवतार हुए हैं, वे सेवक ही हुए हैं। उनका सेवा का क्षेत्र मानव तक ही सीमित न होकर पशुओं तक व इससे भी अधिक व्यापक रहा है, यथा-श्रीकृष्ण गोसेवक थे। ईसामसीह भेड़-पालक, मोहम्मद साहब बकरो-पालक थे। ये सभी महापुरुष अवतार की कोटि में गिने जाते हैं।
भगवान् महावीर तथा बुद्ध ने सेवा द्वारा जन-कल्याण किया इसलिए महान् कहलाये । संसार में महान् पद व सम्मान के अधिकारी या पात्र सदैव सेवक ही हुए हैं । वस्तुतः सेवक भगवान् के अवतार ही हैं। सेवक में जितनी भावना विभु होती जाती है उतनी ही निर्दोषता बढ़ती जाती है। निर्दोषता या निर्विकारता प्रभु का ही गुण है । इस प्रकार सेवा प्रभु-प्राप्ति का उपाय है ।
निर्दोषता-सेवक जब अन्य की सेवा करता है तो उसकी स्वयं की सेवा स्वतः होती रहती है । सेवा से राग, द्वेष, मोह, स्वार्थ-भाव आदि दोष दूर होते हैं । इन दोषों के दूर होने से शान्ति, मुक्ति एवं प्रसन्नता मिलती है जो उसकी अपनी सेवा है। कारण कि सुख-भोग की लालसा से रहित होने पर ही सेवा-भाव पैदा होता है । सेवा-भाव राग-द्वेष से रहित है । अतः सेवा-भाव से किया गया कार्य या प्रवृत्ति रागनिवृत्ति का साधन है, रागवृद्धि का नहीं। _ सम्मान, कीत्ति आदि सुख-भोग के प्रलोभन से की गई सेवा, सेवा नहीं, सेवा के रूप में भोग है । सेवा के रूप में किया गया भोग दोष
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