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सकारात्मक अहिंसा
उसकी अपनी विशेषता है । इसीलिए सेवा-धर्म के पालन को योगियों के लिए भी गहन कहा है ।
वस्तुतः सेवक को अपने मन पर विशेष संयम रखना पड़ता है, अपने सुख का विशेष त्याग करना पड़ता है । उदाहरणार्थ रोगियों की सेवा को ही लें । सेवक को रोगी के मल-मूत्र, उल्टी-पीप आदि घृणित पदार्थ साफ करने होते हैं । उसे घृरणा को जीतना होता है, रोगो की सुश्रुषा करने के लिए रात भर जागना होता है । क्षय, कोढ़, हैजा श्रादि संक्रामक रोग से ग्रस्त रोगियों के सम्पर्क में आना और स्वयं के रोग ग्रस्त होने की सम्भावना का खतरा उठा कर सेवा करना कितना महान् कार्य है । इसका प्रत्यक्षीकरण मदर टेरेसा के सेवा - स्थलों में किया जा सकता है ।
यह समझना कि सेवा वही कर सकता है जो धनी है, निर्धन सेवा नहीं कर सकता, समीचीन नहीं है । कारण कि जैन-धर्म में सेवा के नौ प्रकार बतायें हैं यथा - 1. अन्न, 2. जल, 3. वस्तु, 4. पात्र, 5. विश्राम, 6. मन से दूसरे का भला चिन्तन करना, 7. मुख से मधुर वचन बोलकर शान्ति देना, 8. काया से सुश्रुषा करना और 9. नम्रता का व्यवहार करना, अहंभाव का त्याग करना । इनमें से प्रथम पांच प्रकार की सेवा का सम्बन्ध वस्तुत्रों से है अतः इनमें भले ही कोई असमर्थ हो, परन्तु अन्तिम चार का सम्बन्ध स्वयं से है । अतः इनसे सेवा करने में प्रत्येक व्यक्ति समर्थ है । सेवा के इन रूपों का महत्व भी वस्तुओं द्वारा की जाने वाली सेवा से कम नहीं है । अतः मानव का कर्त्तव्य है कि वह अपनी सुविधा के अनुसार सेवा कर अपना व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन उन्नत बनाये ।
वास्तविकता तो यह है कि भावात्मक सेवा असीम होती है और भावात्मक सेवा को अभिव्यक्ति क्रियात्मक सेवा में होती है । दोनों प्रकार की सेवाएं परस्पर पूरक हैं । भावात्मक सेवा प्राण और क्रियात्मक सेवा शरीर के समान मानव जीवन के भिन्न अंग हैं । सेवा ही मानव जीवन की विशेषता है, सेवा रहित जीवन पशु जीवन है ।
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