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सेवा
[ 33 3. आहारौषधयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन वैयावृत्त्यं ब्रवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ॥ रत्नकरंडश्रावकाचार, 117 वसुनंदी श्रावकाचार 2333, पद्मनंदी पंचविंशति 2/50,
अर्थात् चार ज्ञान के धारक गणधर पाहारदान, औषधदान, उपकरणदान और आवासदान से चार प्रकार का वैयावृत्त्य करते हैं, और वैयावृत्य धर्म है
वैयावृत्त्य को निर्जरा के बारह भेदों में भी स्थान प्राप्त है । निर्जरा धर्म का अंग है। अतः वैयावृत्त्य अथवा सेवा भी धर्म है। कर्म-निर्जरा के लिए इनका बड़ा महत्त्व है। ___अतः वैय्यावृत्त्य या सेवा वह राजमार्ग है जिस पर भौतिकता व आध्यात्मिकता की गाड़ियां उत्कर्ष की ओर अग्रसर होती हैं, जिसके इधर-उधर, आस-पास किसी प्रकार की खाई व खड्डे का कोई भी खतरा नहीं है । अतः जो साधक साधना के राजमार्ग पर चलना चाहता है उसके लिए सेवा उत्तम मार्ग है। सेवा संवर भी है और निर्जरा भी है। अन्न-जल, वस्त्र-पात्र, शिक्षा-चिकित्सा आदि से किसी को शान्ति पहुंचाना, सेवा का क्रियात्मक पक्ष है । सेवा आध्यात्मिक एवं भौतिक इन दोनों प्रकार की उन्नति का मार्ग है। सेवक भौतिक उन्नति से स्वर्ग का सुख एवं आध्यात्मिक उन्नति से अपवर्ग का आनंद पाता है। इसलिए सेवा-धर्म की महिमा में महर्षियों ने कहा है-"सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः" अर्थात् सेवाधर्म अतिगहन है जिसकी महिमा का पार पाने में योगी भी असमर्थ हैं।
इस सूत्र में योगियों के लिए भी सेवा को गहन कहने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार योगी समदृष्टि होता है, शत्रु-मित्र के प्रति समभाव रखता है, सुख-दुःख, अपमान-सम्मान, निन्दा-स्तुति, हानि-लाभ प्रादि की अनुकूलता-प्रतिकूलता में समता से रहता है; उसी प्रकार सेवक भी शत्रु-मित्र के प्रति समता-भाव रखता है तथा सबका हित ही करता है । वह अपनी धन-संपति का त्याग भी करता है। अर्थात् योगी के सब गुरण तो न्यूनाधिक रूप में उसमें होते ही हैं साथ ही अपनी वस्तु, सामर्थ्य व सुख का समपर्ण-भावना से त्याग करना
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