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सकारात्मक अहिंसा
यही नहीं वैद्ययावृत्त्य से सर्वांगीण विकास होता है । यथा- . .
1. वेयावच्चेणं तित्थयरणामगोयं कम्मं बंधइ। (उत्तरा० अ० 29) अर्थात् वैयावृत्य-सेवा से तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म बंधता है ।
2. आत्मप्रयोजनपर एव जायते स्वाध्यायमेव कुर्वन् । वैयावत्यकरस्तु स्वं परं चोद्धरतीति मन्येत (भगवती आराधना 329) अर्थात् स्वाध्याय करने वाला केवल अपनी ही उन्नति करता है जबकि वैयावृत्य (सेवा) करने वाला स्वयं की और अन्य की दोनों की उन्नति करता है।
3. सोउण वा गिलाणं, पंथे गामे य भिक्खबेलाए । ____जति तुरियं रण गच्छति, लग्गति गुरूए स चउमासे ।
(निशीथसूत्र चूर्णी 10) विहार करते हुए, गाँव में रहते हुए, भिक्षाचर्या करते हुए यदि सुन पाए कि कोई भी साधु-साध्वी रुग्ण है तो शीघ्र ही वहां पहुंचना चाहिए । जो साधु-साध्वी शीघ्र नहीं पहुंचता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है।
वैयावृत्य प्राभ्यन्तर तप है, उस तप के स्वरूप को विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न प्रकार से निरूपित किया गया है । यथा1. अद्धाण तेण सावद-रायणदीरोधणासिवे प्रोमे।
वेज्जावच्चं उत्तं संगहसारक्खणो वेद । जो मार्ग में चलने से थक गये है, चोर, हिंसक पशु, राजा द्वारा व्यथित, नदी की रूकावट, मरी (प्लेग) आदि रोग तथा दुभिक्ष से पीड़ित हैं उनकी सार संभाल व रक्षा करना वैयावृत्य तप है। . 2. वेयावच्चं निययं करेह, उत्तमगुणधरंताणं ।
सच्चं किर पडिवाई, वेयावच्चं अपडिवाई। उत्तम गुणधारक मुनिराजों की नित्य वैयावृत्त्य (सेवा) करनी चाहिये, क्योंकि अन्य सभी गुण तो प्रतिपाती हैं, एक बार प्राप्त होने के बाद कदाचित् नष्ट हो जाते हैं, मगर वैयावृत्य अप्रतिपाती है ।
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