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सेवा
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परन्तु, सेवाजनित सुख में इसके विपरीत होता हैं--इसमें जिन दुःखी व्यक्तियों की सेवा की है ऐसे दुःखी व्यक्तियों की संख्या अधिक हो, अथवा उनका अधिक दुःख हो ताकि अधिक सेवा का अवसर मिले, ऐसी भावना नहीं होती । वह चाहता है कि ऐसी स्थिति रहे जिसमें प्राणियों को दुःख ही न हो अथवा हो तो कम से कम दुःख हो तथा सेवा कराने की स्थिति ही उत्पन्न न हो ।
सेवा व वैयावृत्त्य का महत्त्व बताते हुऐ प्राचार्य हरिभद्र 'आवश्यक सूत्र' की टीका में फरमाते हैं कि एक बार भगवान् महावीर से गौतम गणधर ने पूछा - "भगवन् ! एक साधक अपना सर्वस्व श्रापको समर्पित कर आपके चरणों में रहकर प्रापकी सेवा करता है और दूसरा साधक आपके चरणों में, आपकी सेवा में उपस्थित नहीं रहता है, परन्तु ग्लान, रोगी एवं पीड़ित की सेवा करता है । इन दोनों में से कौन धन्य है ?"
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उत्तर में भगवान् ने फरमाया- - " हे गौतम! मुझे अपनी पूजा, सेवा नहीं चाहिए । मैं तो पीड़ित ग्लान की सेवा को अपनी सेवा समझता हूं । मेरी आज्ञा की आराधना करना, अनुपालन करना ही मेरी आराधना, दर्शन व सेवा है । जो व्यक्ति ग्लान, रोगी, पीड़ित, संतप्त व दुःखी की सेवा करता है वह धन्य है - जं गिलाण पडिचरई, से धन्ने । "
जो सेवा सुश्रूषा दूसरे व्यक्ति के आत्म-विकार दूर करने एवं साधना में सहयोग देने के उद्देश्य से की जाती है, वह वैयावृत्य है, उच्च कोटि की सेवा है । इसका उद्देश्य आत्म-विकारों का क्षय करना है, कर्मों की निर्जरा करना है और इसका फल कर्म-क्षय के रूप में मोक्ष की प्राप्ति है । जैसा कि कहा है
पासंगभोगेणं वेयावच्चम्मि मोक्खफलमेव ।
आरणाराहरण प्रणुकंपदि विसयम्मि ||
अर्थात् भगवान् की आज्ञा का श्राराधक साधक प्रसंगानुसार प्राप्त भोग सामग्री को अनुकंपापूर्वक सेवा में लगाता है तथा उसके फल रूप में मोक्ष प्राप्त करता है ।
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