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________________ 30 ] सकारात्मक अहिंसा प्राणी की मान्यता है कि सुख इन्द्रिय-भोगों में है, अत: वह कामना-पूर्ति का प्रयत्न करता है। कामना-पूर्ति होने पर जो भोग का सुख मिलता है, वह क्षीण होता हुआ नष्ट हो जाता है तथा पुनः वही नीरसता की स्थिति आ जाती है, इस प्रकार कामना पूर्ति व उत्पत्ति का दुष्चक्र चलता ही रहता है । कामना-उत्पत्ति-पूर्ति का यह दुष्चक्र तभी टूट सकता है जब सुख की उपलब्धि कामना-पूर्ति के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से हो और साथ ही वह स्थायी भी हो। ऐसा स्थायी सुख बाहर के भोग्य पदार्थों से तो मिलना कभी भी संभव नहीं है, क्योंकि वे पदार्थ स्वयं ही अनित्य हैं तथा उनका वियोग अवश्यम्भावी है। अतः आवश्यकता है ऐसे सुख की जो सुख अन्तर आत्मा से ही उपलब्ध हो व स्थायी हो। सेवा से प्राप्त सुख ऐसा ही सुख है। वह अन्तर से स्वयं ही प्रकट होता है। अतः स्वाधीन भी है और स्थायी भी है। इस आंतरिक सुख के प्रास्वादन से कामना-पूर्ति व भोगजनित विषय सुख के पीछे दौड़ने की भावना में शिथिलता व गति में धीमापन प्राता जाता है, राग की तीव्रता घटती जाती है, राग गलता जाता है, और भोग-सुख छूटता जाता है। इस प्रकार सेवा राग व भोग-वासना को गलाने का क्रियात्मक रूप है, अर्थात् सेवा प्रवृत्ति-परक साधना है। राग के गलने तथा मंद होने से अन्तरात्मा में शान्ति का अनुभव होता है । यह शान्ति प्रांतरिक विश्रान्ति है। यह प्राकृतिक नियम है कि शान्ति या विश्रान्ति से शक्ति की वृद्धि होती है । अन्तःकरण की शक्ति ही चेतना की शक्ति है । चेतना-शक्ति का विकास चेतन प्राणी के विकास का द्योतक है। प्राणी की चेतना के विकास के प्रभाव से प्राणों का विकास होता है जो शरीर, इन्द्रिय, मन, प्रायु आदि प्राणों की प्राप्ति होने व इनका प्राणबल बढ़ने के रूप में प्रकट होता है। भोगजन्य सुख और सेवाजन्य सुख में एक अन्तर यह भी है कि भोगजन्य सुख जिन पदार्थों व परिस्थितियों से मिलता है, उनको सदैव बनाये रखने व वृद्धि करने की कामना निरन्तर बनी रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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