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सेवा
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सकता। साथ ही भोग-जनित सुख क्षणिक होता है जो भोगते समय ही प्रतिक्षण क्षीण होता जाता है। हलुवा खाने के स्वाद का सुख जो पहले ग्रास में आता है, वह दूसरे ग्रास में नहीं पाता और चालीस-पचास ग्रास खा लेने के बाद तो स्थिति यह बन जाती है कि वह सुख ही दु:ख-रूप प्रतीत होने लगता है तथा भविष्य में हम हलुपा खाने की उस स्मृति को जागृत करके स्वाद का सुख नहीं पा सकते । परन्तु आत्मीय भाव या सेवा से प्राप्त सुख में यह दोष नहीं है, इस सुख की उपलब्धि किसी प्रकार की उत्तेजना से नहीं होती, परन्तु समता व शान्ति से होती है । इन्द्रिय सुख-भोग के समान सेवा का यह सुख न तो उबाने वाला होता है और न क्षीण ही होता है प्रत्युत् सेवा कितनी ही की जाय, सुखानुभूति बढ़ती ही जाती है और भविष्य में भी जब भी सेवा-कार्य की स्मृति होती है, हृदय में सरसता व प्रसन्नता की लहर दौड़ने लगती है।
___भोगजन्य सुख का अन्त नीरसता में होता है। समय बीतने के साथ उस सुख का रस सूखता जाता है, परन्तु सेवा से उपलब्ध सुख सदा सरस रहता है। सेवा द्वारा जिस दुःखी व्यक्ति का दुःख दूर किया गया है, उस व्यक्ति के न रहने पर भी उसका दुःख दूर होने से हृदय में जो प्रसन्नता होती है वह प्रसन्नता नष्ट नहीं होती। सेवा के रस या सुख की क्षति, पूर्ति, तृप्ति या निवृत्ति कभी नहीं होती है। वह अक्षय होता है। यह बाहर से पैदा नहीं होता, अन्दर से उद्भूत होता है। अतः प्राध्यात्मिक सुख है, भौतिक नहीं। इस सुख की जड़ अन्तःकरण में होती है। अतः यह सदा सरस रहता है।
नीरसता ही कामना की जननी है। भीग-जनित व कामनापूर्ति से प्राप्त सुख या रस का स्वभाव क्षीण होने का है, अतः वह नष्ट हो जाता है जिससे अन्तःकरण में नीरसता व रिक्तता प्रा जाती है। नीरसता व रिक्तता किसी को पसन्द नहीं है, अतः नीरसता व रिक्तता से उत्पन्न अनमनापन रूपी ऊब को मिटाने के लिए, सुख पाने के लिए नई कामना का जन्म होता है। क्योंकि
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