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सकारात्मक अहिंसा का अर्थ होता है स्वयं सुख पाने के लिए दूसरों को सुख पहुंचाना । इसमें प्रतिफल पाने की भावना रहती है अतः यह वणिक्-वृत्ति है। इसमें सौदा होता है, विनिमय होता है, परन्तु अपने ही शरीर तक सीमित अत्यन्त संकीर्ण स्वार्थ-वृत्ति की अपेक्षा यह अधिक अच्छी वृत्ति है। जैसे-जैसे इस वृत्ति का विकास होता है, वैसे-वैसे सहयोग देने की भावना बढ़ती जाती है और प्रतिफल पाने की भावना घटती जाती है। फिर प्रतिफल की चाह के बिना भी सहयोग देने की भावना जागृत होती है ।
- सेवा का स्वरूप-प्रतिफल की चाह किये बिना दूसरों के हित के लिए कार्य करना या सहयोग देना ही सेवा है। सहयोग देने में प्रतिफल पाने की भावना जितनी कम होगी, वह सेवा उतनी अधिक शुद्ध व उच्चस्तर को होगी। प्रतिफल पाने की भावना स्वार्थपरता का ही एक रूप है अतः स्वार्थपरता सेवा का दोष है, विकार है जिसे दूर करना आवश्यक है।
सेवा के सुख का निरालापन-सेवा या आत्मीय-भाव का अपना एक रस है, एक सुख है। यह रस या सुख इन्द्रिय भोग के रस से या सुख से भिन्न प्रकार का है। हम किसी दुःखी प्राणी की सहायता करते हैं और उसका दुःख दूर हो जाता है तो हमारे हृदय में एक प्रकार का सुखानुभव होता है। यह सुख का अनुभव इन्द्रियभोग से प्राप्त होने वाले सुख के अनुभव से निराला, विशेष प्रकार का होता है। यही कारण है कि जैसे-जैसे सेवा के सुख का स्वाद आता है, इन्द्रिय भोग के सुख का स्वाद घटता जाता है, भोगसुख छूटता जाता है ।
... इन्द्रिय व मन के भोग से उत्पन्न होने वाला सुख इन्द्रिय और मन के सक्रिय होने पर मिलता है । उसमें सुख का अनुभव इन्द्रियों की उत्तेजना पर निर्भर करता है। जब ज्वर में जिह्वाइन्द्रिय की स्वाद ग्रन्थियां उत्तेजित नहीं होती, उस समय कितना भी स्वादिष्ट भोजन किया जाय भोजन के स्वाद का सुख नहीं आ
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