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सेवा
जब हम विकास क्रम की दृष्टि से प्राणी जगत् को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि जिस प्रारणी में जितनी अधिक पारस्परिक सहयोग की भावना है, वह उतना ही अधिक विकसित है, अर्थात् उसके शरीर, इन्द्रिय और मन उतने ही अधिक विकसित हैं । विकास का यह क्रम वृक्ष केंचुए, चींटी, मक्खी, पशु-पक्षी में स्पष्ट देखा जा सकता है । इनसे अधिक विकसित बन्दर हैं । उनमें सहयोग की इस भावना ने पारिवारिकता का रूप ले लिया है । वानर से नर अधिक विकसित हैं, अतः मनुष्य जाति में सहयोग की भावना परिवार से बढ़कर समाज व राष्ट्र के रूप में प्रकट होती है ।
सहयोग की भावना का आधार है आत्मीयता का भाव । श्रात्मीयता का विकास होता है श्रात्मा के विकास से। जिस प्रकार चन्द्रिका का विकास चन्द्र के विकास का द्योतक है, इसी प्रकार आत्मीयता का विकास श्रात्मा के विकास का द्योतक है ।
स्वार्थ की कमी आत्मीय भाव के विकास की द्योतक होती है । जिसमें जितनी अधिक स्वार्थपरता की कमी होगी, वह उतना ही अधिक विकसित होगा । स्वार्थपरक वृत्ति के अनेक रूप हैं । जो अत्यन्त स्वार्थी होते हैं वे अपने शरीर को ही सब कुछ मानते हैं, उनमें अपने बाल-बच्चों व परिवार के प्रति भी प्रेम नहीं पैदा होता है, वे पत्थर हृदय हैं, जड़तुल्य हैं । प्राणी अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अनुकूल प्रकृति ( कुदरत ) में जन्म लेता है । इस प्राकृतिक नियमानुसार ऐसे पत्थर हृदय, जड़ प्रकृति के प्राणी स्थावर जगत् पृथ्वी, वनस्पति आदि में जन्म लें तो श्राश्चर्य की बात नहीं है ।
जीवन में स्वार्थ भावना जितनी घटती जाती है उतनी ही सहयोग की भावना बढ़ती जाती है । प्राथमिक स्थिति में सहयोग
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