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सकारात्मक अहिंसा
ज्ञान-दान करने में प्रयत्नशील रहता है । यही उसका अनंत दान है।
इस प्रकार वीतराग की सर्वदा सर्व कल्याणकारी भावना अनंत दान है। वीतराग को लेशमात्र भी कमी का अनुभव नहीं होता, यही उसका अनंत लाभ है। वीतराग को लेशमात्र भी नीरसता का अनुभव नहीं होता, यही उसका अनन्त भोग है। प्रतिक्षण उसे नवीन रस का अनुभव होता है, यही उसका अनन्त उपभोग है। वह कृतकृत्य होता है, उसे कुछ भी करना शेष नहीं रहता, अतः उसे लेशमात्र भी असमर्थता नहीं रहती, यही उसका अनन्त वीर्य है। ये पांचों उपलब्धियां मोह के सर्वथा क्षय होने पर संभव हैं। अतः मोहनीयकर्म के पूर्णतः क्षय होने से कैवल्य की उपलब्धि होने पर उनकी भी उपलब्धि होती है।
करुणा या अनुकम्पा का उद्गम-स्थल अन्तःकरण है । अन्तःकरण से अन्तःकरण का मिलना करुणा है। दूसरे के अन्त:करण के अनुभव को अपनी अनुभूति बना लेना सहानुभूति है। जिस समय सहानुभूति या करुणाभाव होता है, उस समय राग की, काम-वासना की लहरें उठना कम हो जाती हैं, मस्तिष्क का तनाव घट जाता है, अन्तः प्रवेश होता है, वृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है।
करुणा का प्रारम्भ निकटवर्ती व पंचेन्द्रिय आदि विकसित प्राणियों के प्रति उत्पन्न सहानुभूति से होता है। हम अपने निकटस्थ व परिचित व्यक्तियों के अन्त:करण (हृदय) की दशा से परिचित होते हैं अतः उन पर करुणा आ जाती है। जिससे हमारा संबंध व परिचय नहीं है, उनके हृदय की दशा से हम अपरिचित होते हैं अतः उन पर करुणा नहीं पाती है। जैसे जैसे आत्मीयता का विकास होता जाता है, करुणा का क्षेत्र बढ़ता जाता है। फिर क्रमशः मनुष्य मात्र पर, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, आदि हिलते चलते जीवों पर व वनस्पति आदि स्थावर जीवों पर भी करुणा आने लगती है और अन्त में प्राणिमात्र के प्रति करुणा
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