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________________ करुणा और अनुकम्पा [ 21 का भाव जागृत हो जाता है। कारण कि संसार के सभी प्राणी विकारी हैं। विकार या दोष स्वयं दुःख रूप हैं तथा इनका फल भी दुःख रूप में अवश्य भोगना पड़ता है। इस दृष्टि से सब प्राणी दुःखी हैं, सब प्राणी करुणा के पात्र हैं । इस प्रकार संसार के अनंतानंत प्राणियों के दुःख का दर्शन करने से अनंत करुणाभाव जागृत होता है। ऐसी अनंत करुणा राग का प्रात्यन्तिक विनाश कर वीतरागता का कारण बनती है, जो आत्मा के पूर्ण विकास की द्योतक है। करुणा और मोह में अन्तर करुणा व मोह में बड़ा अन्तर है । मोह का संबंध भोग से है । भोग-प्राप्ति के लिए की गई प्रवृत्ति कामना-वासना रूप होने के कारण मोहयुक्त होती है। दूसरे के दुःख को दूर करने के लिए की गई प्रवृत्ति सेवारूप होने के कारण करुणायुक्त होती है। करुणा या सेवा को मोह मानना भारी भूल है। इससे हृदय में कठोरता आती है। ऐसा व्यक्ति हृदयहीन हो जाता है, कर्त्तव्यविमुख हो जाता है । अतः करुणा उपादेय है और करुणा का क्रियात्मक रूप सेवा ग्राह्य है तथा मोह हेय है और मोह का क्रियात्मक रूप 'भोग' त्याज्य है । . करुणा और मोह में रात-दिन का अन्तर है । मोह में दूसरों से सुख पाने की इच्छा होती है। करुणा में दूसरों के दुःख से द्रवित होकर निजी सुख सामग्री को समर्पित करने की भावना होती है। करुणा सब दुःखियों के प्रति समान होती है। उसमें जाति-पांति, धनी-निर्धन, छोटा-बड़ा, स्वजन-परजन, अपनापनपरायापन का भेद नहीं होता है। करुणा आत्म-विकास का ही प्रतीक है। करुणा अन्तर्भाव से उत्पन्न होती है। करुणावान् दूसरों के लिए अपनी वस्तुओं का, तन-मन के सुखों का त्याग करता है, भोगी दूसरों से वस्तुओं व तन-मन के सुखों को पाने के लिए लालायित रहता है । वह रात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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