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करुणा और अनुकम्पा
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इतना डूबा रहता है कि दूसरों को दुःख होने पर भी उसमें उनके प्रति करुणा नहीं जागती है । वह दूसरों को दुःखी करके भी अपना सुख भोगता रहता है । उसकी वह क्रूरता, करुणाहीनता, उसकी चेतना की मूच्छित अवस्था की ही द्योतक है । मोह के घटने पर ही स्वार्थभाव घटने लगता है | स्वार्थ भाव के घटने पर ही करुणाभाव जागृत होता है । अतः करुणा भाव मोह के घटने या मिटने का द्योतक है । मोह के मिटने से कामना मिटती है, कामना के मिटने पर कभी कमी का अनुभव नहीं होता है, सदैव ऐश्वर्य व लाभ की अनुभूति होती है । कामना मिटने से कामना पूर्ति से होने वाला राग और कामना - अपूर्ति में होने वाला द्वेष मिट जाता है । राग-द्वेष के मिटने से भेद- भिन्नता मिटकर उसमें सबके प्रति माधुर्य भाव पैदा हो जाता है जो उसे निज रस (सुख) से भर देता है । यह निज रस की अनुभूति भोगोपभोग की उपलब्धि है । वह निज रस में इतना निमग्न रहता है कि फिर उसे कुछ भी चाह नहीं रहती है । चाह नहीं रहने से कुछ भी पाना शेष नहीं रहता है । पाना शेष नहीं रहने से करना शेष नहीं रहता है । चाहना, पाना, करना शेष नहीं रहने पर जानना शेष नहीं रहता है । कुछ भी शेष नहीं रहने पर पराधीनता, असमर्थता शेष नहीं रहती है । असमर्थता का शेष न रहना ही वीर्य है । इस प्रकार मोह के मिटने से जड़ता, कामना, राम ( ममता ), द्वेष (भेद - भिन्नता) व असमर्थता का अन्त हो जाता है जिससे जीव को अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, और अनंत वीर्य की उपलब्धि होती है ।
प्रश्न उपस्थित होता है कि वीतराग के पास एक दाना भी नहीं होता है, तब फिर वह क्या दान देता है ? वह अनंत दानी कैसे है ? तो कहना होगा कि वीतरागी पुरुष संसार के समस्त प्राणियों को विषय-सुख की दासता के तथा पराधीनता के सुख में आबद्ध देखता है । उसका हृदय इस पराधीनता की पीड़ा से संवेदनशील होकर करुणित हो जाता है । सभी प्राणियों को पराधीनता की पीड़ा से छुड़ाने के लिए अर्थात् उन्हें मुक्ति प्राप्त कराने के लिए
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