________________
अहिंसा का सकारात्मक रूप
[ 13
तो यह घोर निदर्यता है, दया नहीं है । यदि इसे भी दया माना जाय तो फिर निर्दयता किसे माना जाय ? फिर निर्दयता का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यही नहीं बचाने का भाव उठे और बचाने की सामर्थ्य होते हुए भी बचावे नहीं तो उस भावना का उठना निरर्थक है । वह भावना निर्जीव व निष्प्रारण है, अर्थशून्य है, मूल्यहीन है ।
किसी मरते हुए या दुःख पाते हुए जीव को मृत्यु व दुःख से बचाना दया है,केवल उसे देखते रहना दया नहीं है । यदि देखते रहने कोही दया माना जाय तो संसार के सभी मनुष्य सभी प्राणी प्रतिपल ही अगणित प्राणियों को दुःखी देख रहे हैं, वे सभी दयावान माने जायेंगे जो कि किसी को भी स्वीकार्य नहीं है। अतः दया शब्द की सार्थकता बचाने व रक्षा करने रूप सक्रियता में है । दया सक्रियता की द्योतक है, निष्क्रियता या अकर्मण्यता की नहीं । अकर्मण्यता घोर प्रमाद है। यदि दया का अर्थ निष्क्रियता या अकर्मण्यता लिया जाये तो निद्रावस्था दया की सर्वोच्च अवस्था कही जायेगी। तात्पर्य यह है कि भाव या ज्ञान की सार्थकता उसके क्रियात्मकरूप में ही है। "पढ़मं नाणं तो दया" के इस सूत्र से भी यह फलित होता है कि ज्ञान का फल या क्रियात्मकरूप दया है, ज्ञान का सार दया है। दया के बिना ज्ञान कार्यकारी नहीं होता। दयारहित ज्ञान से मुक्ति रूप इष्टसिद्धि नहीं मिल सकती।
काउंट लियो टालस्टॉय रूस के बहुत बड़े लेखक व विश्व के महान् विचारक थे। वे बड़े दयालु थे। उनसे उद्योगपतियों द्वारा श्रमिकों का शोषण देखा न गया । आर्थिक विषमता, गरीबी-अमीरी के भयंकर अंतर ने उनके हृदय को झकझोर दिया, उन्होंने साम्यवाद के विचारों का बीज वपन किया। उनके विचारों का प्रभाव महात्मा गांधी व विश्व के लाखों लोगों पर पड़ा। उनका हृदय कोमल था । पशु-वध उनसे देखा नहीं जाता था। उन्होंने मांसाहार का त्याग कर दिया था। उनके प्रभाव से पाश्चात्त्य देशों में लाखों की संख्या में लोग शाकाहारी हो गये थे ।
एक बार टालस्टॉय की बहन उनसे मिलने आई। उसे मांसाहार प्रिय था। उसे भोजन कराना जरूरी था। घर की महिलाओं के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org