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सकारात्मक अहिंसा
स्वीकार करना है । दया के दूसरे पक्ष "जीव को बचाने " का निषेध करना दया शब्द का, दया धर्म का निषेध करना है । प्रकारान्तर से कहें तो हिंसा का बचाव करना है, जो पाप या दोष का रूप है ।
जैन आगम में तीन योग और तीन कररण से पाप के त्याग का विधान है । मन, वचन व काया ये तीन योग हैं तथा ( 1 ) करू नहीं ( 2 ) कराऊं नहीं ( 3 ) करते हुए का अनुमोदन करू नहीं, ये तीन करण हैं । अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी, आदि पाप प्रवृत्तियां ( दुष्प्रवृत्तियां) करना, कराना व अनुमोदन करना ये तीनों ही पाप हैं, बुरे कार्य हैं, दोष हैं । पाप प्रवृत्ति को रोकना धर्म है । जिसे पाप प्रवृत्ति करने से रोका या बचाया जायेगा वह पाप से बचेगा । पाप करने से किसी को बचाने में धर्म ही है, धर्म नहीं है । किसी जीव को न मारना तथा मरने से बचाना इन दोनों कार्यों का एक ही परिणाम प्राता है । जीव के प्राणों की रक्षा हो प्राणी की रक्षा है, दया है । रक्षा व दया अहिंसा रूप धर्म है । धर्म को धर्म न कहना अधर्म है । धर्म को अधर्म मानने को जैन दर्शन में मिथ्यात्व कहा गया है जो सबसे भयंकर पाप है, घोर श्रमानवता है जिसका साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । इसलिए दया धर्म की महत्ता बतलाते हुए कहा है
दया सुखां री बेलड़ी, दया सुखां री खान । अनंता जीव मुकते गया, दया तणे फल जाण ॥
अर्थात् दया का फल सुख है, दया सुखों की खान है । दया के फलस्वरूप अनंत जीवों ने मुक्ति प्राप्त की है । यहां यह स्पष्ट कहा है कि दया का फल मुक्ति या मोक्ष है । दया के द्वारा मुक्ति की ओर गति तभी संभव है, जब उसके दोनों पक्ष बराबर काम करें। जिस प्रकार पक्षी एक पक्ष (पंख) से या व्यक्ति एक चरण से गति करने में असमर्थ होता है इसी प्रकार दया के एक पक्ष अहिंसा से साधक मुक्ति की ओर गति करने में असमर्थ रहता है । कारण कि कोई प्राणी तड़फता रहे, छटपटाता रहे, मरता रहे और उसे देखकर हृदय करुणार्द्र न हो, अनुकंपित न हो, द्रवित न हो, हृदय में उसे बचाने का भाव न उठे
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