________________
अहिंसा का सकारात्मक रूप
[ 11
सव्वजगजीवरक्खरणदयट्ठाएं भगवया सुकहियं- - प्रश्नव्याकरण 2-2-22 अर्थात् भगवान् ने सब जीवों की रक्षा व दया के लिए
प्रवचन फरमाया ।
धर्मो दयामयः प्रोक्तः जिनेन्द्रजित मृत्युभि: ( वरांगचरित 15-10-7) जिनेन्द्रदेव ने धर्म को दयामय कहा है ।
कल्लारण भागिस्स
विसोहिठाणं ।
कल्याणार्थी साधक के लिए लज्जा, दया, संयम, और ब्रह्मचर्य ये चारों विशुद्धि के स्थान हैं ।
लज्जा- दया- संजम - बंभचेरं, दशवं. अ. 9 उ. 1 गा. 13
इस प्रकार दया धर्म है श्रतः कल्याणकारी है इसकी पुष्टि में अगणित सूत्र श्रागम व टीकाओं में भरे हैं, यहां तो मात्र संकेत के रूप में कुछ ही सूत्र उद्धृत किए गए हैं ।
दया- रक्षा
इस प्रकरण के प्रारम्भ में प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के साठ नाम बताये हैं इनमें 'दया' और 'रक्षा' भी हैं। ये विधिपरक नाम हैं, निषेधपरक नहीं । अतः दया व रक्षा का अर्थ 'बचाना' व रक्षा करना है । केवल न मारने तक ही दया व रक्षा का अर्थ सीमित नहीं है । यह बात अवश्य है कि दया या रक्षा करने अथवा बचाने में 'न मारना' आ ही जाता है । इस प्रकार जो अहिंसा का अर्थ 'नहीं मारने' तक ही सीमित रखते हैं उसका भी समावेश दया में हो ही जाता है । अतः दया का क्षेत्र अहिंसा से अधिक व्यापक है । दया के दो पक्ष या रूप हुए । प्रथम पक्ष तो किसी जीव को न मारना और दूसरा मरते हुए जीव को बचाना ।
उपर्युक्त दया या रक्षा के दोनों रूपों में से किसी जीव को न मारने रूप प्रथम पक्ष को स्वीकार करना और मरते हुए जीव को बचाने रूप दूसरे पक्ष को स्वीकार न करना, दया या रक्षा का अधूरा अर्थ स्वीकार करना है--जो उचित नहीं है । अतः दया का अर्थ मात्र "न मारना" स्वीकार करना सत्य को अधूरे रूप में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org