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अहिंसा का सकारात्मक रूप
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ठगी न करना, किसी का बुरा न चाहना, बुरा न कहना आदि । और विधेयात्मक अहिंसा के रूप हैं- दया, दान, करुणा, अनुकंपा, वात्सल्यभाव, भ्रातृत्वभाव, मातृत्वभाव, मैत्रीभाव, सेवाभाव, उदारता, सहृदयता, संवेदनशीलता आदि । ये दोनों परस्पर पूरक हैं । जो निषेधात्मक अहिंसा को नहीं अपनाता वह दुष्ट है, दुर्जन है । जो निषेधात्मक हिंसा को अपनाता है वह सज्जन है और जो विधेयात्मक अहिंसा को अपनाता है वह महाजन है, महापुरुष है, उदार है । दुर्जनता को त्यागना तथा सज्जनता व उदारता को अपनाना ही मानवता है । मानवता से मानव की शोभा है । मानवता रहित मानव, मानव की आकृति में दानव है । मानवता -युक्त मानव ही महापुरुष है ।
इसी संदर्भ में यह विचारणीय है कि भगवान् महावीर कृतकृत्य सर्वज्ञ हो गये थे उन्हें कुछ भी करना व जानना शेष नहीं रहा था । उनको संसार के जीवों को प्रवचन देने की क्या आवश्यकता थी ? प्रवचन देकर उन्हें कौनसा पुण्य या लाभ प्राप्त करना था ? फिर भी उन्होंने संसार के समस्त जीवों की रक्षा व दया के लिए प्रवचन दिया । जैसा कि प्रश्न - व्याकरणसूत्र में कहा है
'सव्व जगजीवरक्खरणदयट्ट्याए पावयणं भगवया सुकहियं'
वीतराग सर्वज्ञ भगवान का सर्व जन हिताय प्रवचन देना, लोगों hat व्यक्तिगत रूप से बोध देना विधेयात्मक हिंसा का जीता जागता प्रमाण है ।
संयम धारण करने के
यही नहीं स्वयं भगवान् महावीर ने पश्चात् भी अपना देवप्रदत्त वस्त्र ब्राह्मरण को दान दिया । तीन ज्ञान के धारी भगवान् महावीर ने तथा अन्य सब तीर्थंकर भगवान् ने दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष तक सब तरह के जीवों को बिना भेद-भाव के मुक्तहस्त से भरपूर दान दिया व आगे भी दान देते रहे । यदि दान देना संसार-भ्रमरण का कारण, मुक्ति में बाधक व सोने की शूली या बेड़ होता तो भगवान् यह भूल कभी न करते । यदि उनकी छद्मस्थ अवस्था के कारण से ऐसी भूल हो गयी होती तो केवल ज्ञान होने के
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